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सात अरब सपने, एक ग्रह सावधानी से उपभोग कीजिए : निबंध

सात अरब सपने, एक ग्रह सावधानी से उपभोग कीजिए : निबंध 

                                                     - नीतू सिंह 

सात अरब सपने, एक ग्रह सावधानी से उपभोग कीजिए : निबंध
सात अरब सपने , एक ग्रह सावधानी से उपभोग कीजिए : निबंध  


सात अरब सपने, एक ग्रह सावधानी से उपभोग कीजिए 

  बढ़ती आबादी, उपभोग की संस्कृति विकास के विकृत मॉडल को देखकर गांधी जी ने स्वतंत्रता उपरान्त विकास मॉडल के सम्बन्ध में निम्न पंक्तियाँ कही, जो विषय की समझ हेतु मार्मिक हैं— “यदि भारत ने विकास के पश्चिमी मॉडल को अपनाया तो निश्चित रूप से विश्व को एक और पृथ्वी की खोज करनी होगी।” 21वीं सदी में गांधी का उपरोक्त कथन एकदम सटीक बैठता है। जहाँ मंगल ग्रह पर जीवन खोज की जद्दोजहद जारी है। सात अरब आबादी के लिए मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना व उनके सपने पूरे करना ‘पृथ्वी’ पर भार की तरह लग रहा है। इसलिए देश क्योटो प्रोटोकॉल से लेकर पेरिस सन्धि तक की राह तय कर रहे हैं। जबकि मुद्दा तो ‘जीवनशैली’ में परिवर्तन का है। रामचन्द्र गुहा ने ठीक ही कहा है कि हमें अपने उपभोग की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं करना चाहिए। पर शक्ति की होड़ व मानव का अपने ज्ञान पर गर्व पर्यावरण निम्नीकरण की ओर अग्रसर करता है। यद्यपि मुद्दे की सही पकड़ व समाधान की सही राह के लिए गहन व विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। हमें जानना होगा कि आज उपभोग को सावधानी से करने की सलाह क्यों दी जा रही है? अगर ऐसा नहीं हुआ तो 7 अरब सपनों का क्या होगा? आखिरकार यह भी देखना होगा कि सपनों की गुणवत्ता क्या हो? फिर समाधान की ओर बढ़ना भी जिम्मेदारी बनती है? इनके उत्तर देने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय, मानवीय, लैंगिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, अन्तर्राष्ट्रीय व दार्शनिक आयामों को देखना महत्त्वपूर्ण है। यहाँ मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ उपयुक्त प्रतीत होती हैं— हम क्या थे, क्या हो गए, क्या होंगे अभी आओ मिलकर विचारें, ये समस्याएँ सभी। उल्लेखनीय है कि मानव विकास की कहानी आदिम जीवन से आरम्भ होती है। जो औद्योगीकरण के युग तक प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए हुए था। किन्तु औद्योगिक क्रान्ति के युग में मानव ने विज्ञान के आधार पर प्रकृति को जीतने का प्रयास किया। उपभोग की सीमा को पार करते हुए कार्बन उत्सर्जन, पर्यावरण प्रदूषण व आपदाओं को न्योता दिया। जो आगे विश्वयुद्धों व शीत युद्ध में भी दिखा। किन्तु मानव ने 20वीं सदी के अन्त तक सीमाएँ लाँघ दी। जिसका परिणाम आज ग्लेशियर के पिघलने, कृषि उपज में कमी आने, द्वीपों के डूबने, नए-नए तरह के रोग सामने आने व आपदाओं के रूप में देखा जा सकता है। उपरोक्त परिस्थिति ने ही विश्व जगत में धारणीय विकास, गहन पारिस्थितिकी, स्मॉल इज ब्यूटीफुल जैसे विचारों को उत्पन्न किया। आज आर्थिक वृ‍द्धि, आय को दिन दुगुने रात चौगुने की रफ्तार से बढ़ाने की चाह, देशों के बीच विकास की प्रतिस्पर्धा ने पर्यावरण व हमारी साझी धरोहर पर संकट ला दिया। जिसे हार्डिन जैसे विचारक ने ‘ट्रेजडी ऑफ ग्लोबल नॉर्म्स’ की संज्ञा दी। सामाजिक आयाम में देखें तो सामुदायिक सहयोग, सहज जीवनशैली व संयुक्त परिवारों में टूटन देखी जा सकती है। जिसे विकसित देशों व भारत के मेट्रोपॉलिटन शहरों में देखा जा सकता है। जहाँ घरों के सदस्यों से अधिक कारें होती हैं। तभी ऑड-इवन लाना भी पड़ता है। गाँवों में भी यह समस्या पहुँच रही है, जिसे टाँका, मोल्लम, बावड़ी, जोहड़ आदि के पतन के रूप में देखा जा सकता है। राजनीतिक क्षेत्र ने भी विकास की रणनीति को आधारणीय बनाया। जहाँ प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकतम नियंत्रण, जनजाति क्षेत्र का दोहन व ‘येन केन प्रकारेण’ की रणनीति ने 7 अरब सपनों में कुछ के सपने पूरे किए व बड़ी आबादी को भूख, कुपोषण, अन्याय को सहने के लिए छोड़ दिया। साथ ही सांस्कृतिक परिवर्तनों जैसे ‘जो प्राप्त है वो पर्याप्त है’ की रणनीति को त्याग लोगों ने उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना लिया, जहाँ धार्मिक त्योहार व उत्सव नए कपड़े, आतिशबाजी करने व खूब खरीदारी करने तक सीमित रह गए हैं। धर्म या संस्कृति में निहित मूल्यों को समझना ‘ओल्ड स्कूल’ की संज्ञा माना जाता है। जो युवाओं की न्यू लाइफ स्टाइल पर कतई फिट नहीं मानी जाती। उल्लेखनीय है कि तकनीकी ने मानव के जीवन को सहज व सरल बनाया। आपदाओं से बचाया पर बाद में इसी ने दानव का काम भी किया। विकसित देशों ने इसी के आधार पर विकास के परचम लहराए। जो आज इसी के आधार पर नए उपग्रह की खोज पर लगे हैं ताकि पृथ्वी की कथा का दोहराव कर सके। बढ़ती जनसंख्या के सपनों को पूरा कर सके। पर यह निकट भविष्य में तो सच होता दिखता नहीं है। यदि मानवीय पहलू को टटोला जाए तो मानव की असुर शक्ति ने पर्यावरण को अपना दास समझा, जिसके कारण आज ‘1 प्रतिशत आबादी की अर्थव्यवस्था’ का निर्माण हुआ, क्योंकि बड़ी आबादी तो संकट में है। वास्तव में वो ऐसी स्थिति में जहाँ सपने मजाक लगते हैं। उदाहरण के तौर पर अफ्रीकी-एशियाई देशों के जनजातीय क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्र में गरीब कुपोषित महिलाएँ व बच्चे। जिन्हें पेयजल व खाद्यान्न के लिए बंधुआ मजदूरी से लेकर देह व्यापार की ओर मुड़ना पड़ता है। इसलिए 7 अरब आबादी के सपनों में कुछ के सपने आसमां को छूने व प्रकृति को जीतने के होंगे पर ज्यादातर की तो जल-जमीन-जंगल का मामला है। इसलिए सपनों की संख्या के साथ सपनों की गुणवत्ता को भी परिवर्तित करना होगा। एक ओर सपनों की संख्या कम करने अर्थात् जनसंख्या नियंत्रण करना होगा, वहीं दूसरी ओर सपने भी ‘ग्रीन’ देखने होंगे, क्योंकि ‘या तो मानव का भविष्य हरा होगा या होगा ही नहीं’ को समझना होगा। यदि हम आज समाधान की ओर नहीं बढ़ेंगे तो आपदाएँ हमें सभ्यता के अगले चरण की ओर जाने न देंगी। किसी ने ठीक ही कहा है— पानी की याददाश्त बहुत तेज होती है, यह वहीं बहता है, जहाँ वह पहले था। इसे समझते हुए हमें किसी भी सभ्य समाज के सपनों की गुणवत्ता को बेहतर करना होगा। यदि समाधान की बात कही जाए तो हमें सबसे पहले समझ लेना होगा कि ‘पृथ्वी केवल हमारी नहीं है।’ समस्त प्राणी जगत व जैव जगत की रक्षा करना, खाद्यान्न शृंखला को बचाना, विविधता को सौन्दर्य मानना महत्त्वपूर्ण है। उपायों को सबसे पहले तो पहले के किए पापों से मुक्ति पानी होगी, अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में देशों की प्रतिबद्धता को पूरा करना होगा। जिसमें हाल में किए गए सम्मेलन को निर्णायक स्थिति तक पहुँचाना होगा, जैसे आईएनडीसी को पूरा करना। तकनीकी खोजों से धारणीय विकास की राह खोजनी होगी। पर ये समाधान ऊपरी व सतही प्रतीत होते हैं। यहाँ गालिब की ये पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं— जिन्दगी भर गालिब यही भूल करता रहा, धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा। उपरोक्त पंक्तियों के मर्म को समझते हुए जीवनशैली में परिवर्तन लाना समय की अनिवार्यता है। जिसमें उपभोग को कम करने व सृजन को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है। जिसे व्यक्तिगत से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक समझा जा सकता है। व्यक्तिगत स्तर पर आवश्यकता के अनुसार बिजली, जल, खाद्यान्न का प्रयोग करना, प्लास्टिक के थैले के बजाय जूट का प्रयोग करना, उत्सवों से आगे बढ़ने की सीख लेना (आतिशबाजी करने के अवसर के रूप में न लेना), समुदाय के स्तर पर कचरा प्रबन्धन, वनारोपण व जल संग्राहकों को बनाने जैसे काम करने होंगे। 7 अरब सपनों में कइयों का सपना ‘एक ग्रह’ को बचाने का भी होता है, जैसे राजेन्द्र सिंह द्वारा राजस्थान में जल संरक्षण कार्य करना, स्कूली बच्चे अक्षत द्वारा स्वच्छता के लिए मानव चेन बनाना महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्र के स्तर पर धारणीय लक्ष्यों का निर्धारण हो व सभी के सामाजिक, आर्थिक विकास को बढ़ाना होगा। उपभोक्ता बनाने के बजाय व्यक्ति को सृजनकर्ता बनाना होगा। जिसमें वह नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का निर्माण करे। जिसे भारत के सन्दर्भ में सोलर मिशन, ग्रीन कॉरिडोर, ईआईए के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। जिसे विकसित देशों द्वारा अपनाने की जरूरत है। जहाँ प्रति व्यक्ति उपभोग विकासशील देशों की तुलना में लगभग 100 गुना है। आज उन्हें भी योगदर्शन, सीमित उपभोग, लालच छोड़ने व प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाना होगा। सावधानी के साथ उपभोग करना होगा व पृथ्वी को दास मानने के बजाय पालनकर्ता मानना होगा। उपरोक्त ‘उपभोग की लक्ष्मण रेखा’ की बात यथार्थवादी विचारक भले ही आदर्शवादी बताएँ। पर यही दीर्घकालीन समाधान व 7 अरब के लक्ष्यों को पूरा करने का जरिया है। हाँ, अपनी संस्कृति/आदतों को बदलना कठिन जरूर है पर असम्भव नहीं। जिसे दुष्यन्त कुमार की ये पंक्तियाँ प्रेरणा दे सकती हैं— कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। 

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