भक्ति आन्दोलन के उदय के कारणों पर प्रकाश डालिए।
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Bhakti Andolan Ke Karan ? |
भक्ति आन्दोलन के कारण (Causes of Bhakti Movement)
संक्षेप में मध्यकालीन भारत में भक्ति आन्दोलन के व्यापक प्रसार के कारण निम्नलिखित थे—
(1) सरल धर्म की आकांक्षा—
जनसाधारण के लिए कर्मकाण्ड प्रधान या ज्ञानमार्ग को अपनाना कठिन था। वे ऐसा धर्म चाहते थे जिसमें पुरोहितवाद न हो। भागवत धर्म के उत्थान के बाद ही याज्ञिक कर्मकाण्ड कम होते जा रहे थे। भक्ति आन्दोलन इस प्रकार के रूढ़िवादी विचारों के विरुद्ध था। समाज में ब्राह्मणवाद की जटिलता के कारण भी प्रतिक्रिया हो रही थी। ब्राह्मणों ने सर्वोच्च स्थान बनाए रखने के लिए विभिन्न सामाजिक तथा धार्मिक नियमों को बनाया था जिन्हें सामान्य लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। अलबरूनी लिखता है कि, “समाज पर ब्राह्मणों का प्रभुत्व था। वेद अध्ययन, धार्मिक पूजा, आराधना, यज्ञ, अन्य लोगों के लिए वर्जित था। जब शूद्र तथा वैश्य ने वेद अध्ययन तथा आराधना, यज्ञ का प्रयास किया हो तो समकालीन शासकों ने ब्राह्मणों के प्रभाव में आकर उसकी जिह्वा कटवा ली।” समाज में ब्राह्मणों की प्रभुता अन्य वर्गों को स्वीकार नहीं थी। प्राचीन काल में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म ने भी यही प्रयास किए थे लेकिन ब्राह्मण वर्ग ने धर्म के स्वरूप तथा उससे सम्बन्धित कर्मकाण्ड पर नियन्त्रण स्थापित करके अपना प्रभुत्व बनाए रखा तथा निम्न जातियों के लिए मोक्ष के द्वार बन्द कर दिए। यह धार्मिक असमानता भक्ति आन्दोलन का कारण थी।
(2) सामाजिक समानता की आकांक्षा—
भक्ति आन्दोलन का दूसरा कारण सामाजिक असमानता थी। मध्य काल में जाति व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। अनेक विदेशी वर्गों को हिन्दू समाज में सम्मिलित कर लिया था जिससे हिन्दू समाज में जाति प्रथा जटिल हो गई थी। प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न सन्तानों का जाति प्रथा में कोई स्थान नहीं था। अस्पृश्यता की भावना में वृद्धि हो रही थी। बौद्ध और जैन धर्मों ने भी सामाजिक समानता के सिद्धान्त को स्थापित कर दिया था लेकिन ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना से जाति प्रथा भी जटिल रूप में पुनः स्थापित हो गई थी। अतः भक्ति आन्दोलन इस प्रकार की सामाजिक असमानता के विरुद्ध विद्रोह था। भक्ति के क्षेत्र में सभी बराबर थे। अतः दलितों तथा अस्पृश्यों को समानता का मार्ग उपलब्ध हुआ। ईश्वर को स्मरण करना ही धर्म का प्रमुख लक्षण माना जाने लगा। अलबरूनी ने भगवान वासुदेव के शब्दों को इस प्रकार लिखा है कि, “ईश्वर निष्पक्ष भाव से न्याय करता है। यदि कोई ईश्वर को भूलकर सत्कार्य करता है तो वह उसकी दृष्टि में बुरा है। यदि कोई बुरा कर्म करते हुए भी ईश्वर का स्मरण करता है तो वह उसकी दृष्टि में अच्छा है।”
(3) मुसलमानों के अत्याचार—
भक्ति आन्दोलन दो चरणों में विकसित हुआ था। प्रथम चरण दक्षिण भारत में था जो इस्लाम के आगमन के पूर्व था। उत्तर भारत में भी भागवत धर्म का प्रसार मुसलमानों के आगमन के पूर्व हो रहा था लेकिन तेरहवीं शताब्दी में इस्लाम के उत्तर भारत में आ जाने से स्थिति में परिवर्तन हो गया। मुस्लिम शासकों के संकीर्ण धार्मिक दृष्टिकोण के कारण हिन्दू समाज के लिए अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया। मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं को अपनी प्रजा नहीं माना। उनसे जजिया वसूल किया, उन्हें बलात् मुसलमान बनाया, न बनने पर वध कर दिया। हिन्दुओं को न्याय नहीं मिल सकता था। मन्दिरों तथा मूर्तियों का विनाश करके हिन्दुओं का सांस्कृतिक संहार किया गया। अतः ऐसी स्थिति में हिन्दुओं ने ईश्वर की भक्ति में शान्ति प्राप्त की जो दुष्टों तथा अत्याचारियों के विनाश के लिए समय-समय पर अवतार लेता है। इससे पलायनवाद की भावना का भी जन्म हुआ।
(4) इस्लाम का प्रचार—
मुसलमान शासकों का उद्देश्य इस्लाम का प्रसार करना था। उलेमा वर्ग इसकी माँग करता रहता था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए विभिन्न साधनों का प्रयोग किया जा रहा था। मुस्लिम शासकों की नीति थी कि दलित वर्गों को सरलता से प्रलोभन दिया जा सकता था। अतः भक्ति आन्दोलन का एक कारण हिन्दू समाज का संगठन दृढ़ करना तथा उसकी रक्षा करना था। इसलिए इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हिन्दू समाज को जनवादी बनाना आवश्यक हो गया था। इसके लिए निम्न जातियों को समानता देना तथा मोक्ष के लिए उनको द्वार खोलना आवश्यक हो गया था। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं कि, “ये मुल्ला-मौलवी एकेश्वर की सत्ता पर जोर देते थे तथा हिन्दू धर्म और दर्शन की आलोचना करते रहते थे और हर प्रकार के साधन अपना कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयत्न करते रहते थे। अतः हिन्दुओं ने अपने धर्म के दोषों को, विशेषकर जाति-पाँति तथा मूर्ति-पूजा से सम्बन्धित बुराइयों को दूर कर अपनी रक्षा को चेष्टा की थी।”
(5) इस्लाम का प्रभाव—
भारत में इस्लाम के आने के पूर्व भक्ति आन्दोलन चल रहा था। एकेश्वरवाद तथा मानव समानता के सिद्धान्त हिन्दुओं को मालूम थे और दक्षिण भारत में आल्वार सन्तों ने इनकी स्थापना भी कर दी थी, लेकिन इस्लाम का प्रभाव दूसरे प्रकार से पड़ा। एक ओर तो हिन्दू धर्म तथा समाज में सुरक्षा की भावना उत्पन्न हुई तो दूसरी ओर, मुसलमानों से सहयोग तथा सम्पर्क का विकास हुआ। मुसलमानों के भारत में स्थायी बस जाने से इस प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होना स्वाभाविक था। सूफी सन्तों तथा हिन्दू भक्तों में निकट सम्बन्ध भी स्थापित हुये। इन सम्बन्धों से हिन्दुओं को इस्लाम को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। इसका प्रभाव यह हुआ कि हिन्दू समाज आडम्बरों तथा अनेक बुराइयों से मुक्त हो गया।
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