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History Of Indian Constitution in Hindi

  

संविधान-रचना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ?

History Of Indian Constitution in Hindi 


भारतीय संविधान का सम्पूर्ण इतिहास Uniexpro.in
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भारतीय संविधान का इतिहास ? 

किसी भी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी ढाँचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उनकी शक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है। इस प्रकार किसी देश के संविधान को उसकी ऐसी ‘आधार’ विधि (मानक) कहा जा सकता है, जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल सिद्धांतों को निर्धारित करती है। वस्तुतः प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं रचनाकारों के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है। भारत का संविधान भी इसका अपवाद नहीं है।

संसदीय लोकतंत्र की स्थापना 

अंग्रेजों के चंगुल से भारत भले ही 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ हो, किंतु यहां नए गणराज्य के संविधान का शुभारंभ 26 जनवरी, 1950 को हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना।

26 नवंबर, 1949 को भारतीय संविधान-सभा द्वारा स्वीकृत ‘भारत का संविधान’ से पूर्व ब्रिटिश संसद् द्वारा कई ऐसे अधिनियम/चार्टर पारित किए गए थे, जिन्हें भारतीय संविधान का आधार कहा जा सकता है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस संविधान-रचना की पृष्ठभूमि क्या थी? कब, क्यों और कैसे संविधान की रचना की आवश्यकता अनुभव की गई? उसे कार्यरूप में किस प्रकार परिणत किया गया? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने से पूर्व यह उचित प्रतीत होता है कि भारतीय संविधान-रचना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात कर लिया जाए। देश के वर्तमान भौगोलिक एवं राजनीतिक स्वरूप को देखते हुए इसके प्राचीन स्वरूप की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राचीन काल में ही नहीं, स्वतंत्रता-प्राप्ति से ठीक पहले भी देश अनेक छोटी-छोटी रियासतों या राज्यों में बँटा हुआ था। राज्य-विस्तार की लालसा से अधिकतर राजा आपस में प्रायः लड़ते रहते थे। परिणामतः उनमें एकता का अभाव था। विदेशी आक्रांता इसका लाभ उठाते रहते थे। वे मुट्ठी भर सैनिक लेकर आते और यहां जमकर लूटमार करते, लाखों लोगों को गुलाम बनाते और अनुकूल वातावरण देखकर राज करते, अन्यथा अपने देश में लौट जाते। यही कारण है कि हमारे देश का बड़ा भू-भाग और उसके निवासी एक हजार से भी अधिक वर्षों तक गुलाम रहे। हमारे देश को गुलाम बनाने वाले शकों, हूणों, मंगोलों, मुगलों आदि की शृंखला में अंतिम शासक अंग्रेज थे, जो सत्रहवीं शताब्दी में व्यापारी बनकर देश के पूर्वी द्वार 

कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रविष्ट हुए और धीरे-धीरे लगभग संपूर्ण देश में फैल गए। 

राजपत्र (रॉयल चार्टर, 1600) 

सन् 1599 में पूर्वी देशों से व्यापार करने के उद्देश्य से कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने एक रॉयल चार्टर के अधीन ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना की थी, जो तत्कालीन ग्रेट ब्रिटेन की प्रमुख अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक कंपनी थी। कंपनी के संचालन के लिए दो गवर्नरों और चौबीस संचालकों का चयन कंपनी के हिस्सेदारों द्वारा इंग्लैंड में ही किया जाता था। 31 दिसंबर, 1600 को इस कंपनी ने भारत में व्यापार करने के लिए ग्रेट ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ से आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया। इस राजपत्र (रॉयल चार्टर) के अंतर्गत कंपनी के भारतीय शासन की समस्त शक्तियां गवर्नर और उसकी 24 सदस्यीय परिषद् को सौंप दी गईं। सामान्यतः कंपनी का उद्देश्य भारत में अपने व्यापार का विस्तार करना था। साथ ही वह इसके लिए कारखाने और डिपो भी स्थापित कर सकती थी। उसने पहला कारखाना सन् 1600 में सूरत में स्थापित किया; तत्पश्चात् 1660 में मछलीपट्टनम में तथा मद्रास (अब चेन्नई) में और फिर 1690 में कलकत्ता (अब कोलकाता)में कारखाने स्थापित किए। 

राजपत्र (रॉयल चार्टर, 1726) 

आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापार पूर्वी सागर के तटवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित था; किंतु बाद में इसने देश के आंतरिक क्षेत्रों में भी अपने व्यापारिक कदम बढ़ाए और राजाओं के अंतःशासन में भी हस्तक्षेप आरंभ कर दिया। इसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड आदि देशों की व्यापारिक कंपनियों से भी संघर्ष करना पड़ा, जो पहले से ही यहां व्यापार कर रही थीं। धीरे-धीरे पूर्वी राज्यों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का वर्चस्व बढ़ता गया। एक समय वह भी आया, जब कंपनी ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) में अपना शासन स्थापित कर लिया। 

संवैधानिक पृष्ठभूमि पर भारत में प्रथम

• बंगाल का प्रथम गवर्नर क्लाइव था, जबकि अंतिम गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स था। 
• बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स था, जबकि अंतिम गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक था। 
• भारत का गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक था, जबकि अंतिम गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंगथा। 
• भारत का प्रथम वाइसराय लॉर्ड कैनिंग था जबकि अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन था। 
• स्वतंत्र भारत का प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन था जबकि स्वतंत्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल एवं वायसराय सी. राजगोपालाचारी थे। 
• सन् 1958 के बाद से गवर्नर जनरल का पद वाइसराय के नाम से विभूषित हो गया। 
• मद्रास में भारत के प्रथम नगर निगम का गठन सन् 1687 में किया गया। 
• लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स ने पहली बार सन् 1772 में ‘जिला कलेक्टर’ के पद का सृजन किया। 
• 1829 लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा सन् 1829 में ‘मंडलायुक्त’ के पद का सृजन कियागया। 
• लॉर्ड कैनिंग ने सन् 1859 में पोर्टफोलियो पद्धति प्रारंभ की। 
• सन् 1860 में पहली बार बजट-प्रणाली लाई गई। 
• सन् 1872 में लॉर्ड मेयो के समय में भारत की पहली जनगणना हुई। 
• लॉर्ड रिपन के काल में सन् 1881 में भारत की पहली नियमित जनगणना हुई। 
• सन् 1882 के लॉर्ड रिपन के प्रस्ताव को स्थानीय स्वशासन का अधिकृत आदिलेख या महाधिकार पत्र माना जाता है। लॉर्ड रिपन को ‘भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक’ कहा जाता है। 
• सन् 1905 में लॉर्ड कर्जन ने कार्यकाल की पद्धति आरंभ की थी। • सन् 1921 में ‘आम बजट’ से ‘रेल बजट’ को अलग कर दिया गया। • कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना सन् 1774 में हुई थी।

केंद्रीय विधायिका के एक अधिनियम के तहत भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना सन् 1935 में हुई थी।

सन् 1707 में मुगल सम्राट् औरंगजेब के देहांत के बाद मुगल साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन होने लगा। देश के अनेक भागों में अशांति और अराजकता फैलने लगी। सन् 1757 के प्लासी युद्ध और 1764 के बक्सर युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद बंगाल पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का शिकंजा कसने लगा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इन परिस्थितियों का पूरा लाभ उठाते हुए सन् 1765 में मुगल सम्राट् शाहआलम द्वितीय से दीवानी का अधिकार प्राप्त कर लिया। दीवानी का अधिकार मिलते ही ईस्ट इंडिया कंपनी के स्वरूप एवं उसकी कार्यप्रणाली में बदलाव आ गया। अब ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार करने के साथ-साथ ही भारत के कुछ भू-भाग पर शासन करने का अधिकार भी प्राप्त कर लियाथा। इसी शासन को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने समय-समय पर कई एक्ट पारित किए, जो भारतीय संविधान के विकास की सीढ़ियाँ बनीं। 

रेगुलेटिंग एक्ट (1773) 

बंगाल का शासन गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यीय परिषद् में निहित किया गया। इस परिषद् में निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाने की भी व्यवस्था की गई। इस अधिनियम द्वारा प्रशासक मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग, मॉनसन, बरवैल तथा फिलिप फ्रांसिस को परिषद् के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। इन सभी का कार्यकाल पाँच वर्ष का था तथा निदेशक बोर्ड की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट् द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था।

इस अधिनियम की कुछ प्रमुख बातें इस प्रकार हैं— 

• मद्रास तथा बंबई प्रेसीडेंसियों को बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया गया तथा बंगाल के गवर्नर जनरल को तीनों प्रेसीडेंसियों का गवर्नर जनरल बना दिया गया। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स को भारत का प्रथम गवर्नर जनरल कहा जाता है। 
• सपरिषद् गवर्नर जनरल को भारतीय प्रशासन के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया, किंतु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व निदेशक बोर्ड की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था। 
• इस अधिनियम द्वारा बंगाल (कलकत्ता) में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे। सर एलिजा इंपे को उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) का प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इस न्यायालय को दीवानी, फौजदारी, जल सेना आदि मामलों में व्यापक अधिकार दिए गए। न्यायालय को यह भी अधिकार था कि वह कंपनी तथा सम्राट् की सेवा में लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले की सुनवाई कर सकता था। इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी। 
• संचालक मंडल का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया तथा अब 500 पौंड के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालक चुनने का अधिकार दिया गया।
इस प्रकार 1773 के एक्ट के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश संसद् का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ तथा कंपनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया।

सन् 1781 का संशोधित अधिनियम

 इस अधिनियम के द्वारा कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
 इस अधिनियम की कुछ प्रमुखबातें इस प्रकार हैं—

 • इस अधिनियम द्वारा सर्वोच्च न्यायालय पर यह रोक लगा दी गई कि वह कंपनी के कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता, जो उन्होंने एक सरकारी अधिकारी की हैसियत से किया हो। 

• कानून बनाने तथा उसका क्रियान्वयन करते समय भारतीयों के सामाजिक रीति-रिवाजों का सम्मान करने का भी निर्देश दिया गया।

 

पिट्स इंडिया अधिनियम (1784) 

इस संशोधित अधिनियम को कंपनी पर अधिकाधिक नियंत्रण स्थापित करने तथा भारत में कंपनी की गिरती साख को बचाने के उद्देश्य से पारित किया गया। इस अधिनियम की कुछ प्रमखबातें इस प्रकार हैं— 

• भारत में गवर्नर जनरल की परिषद् की संख्या 4 से कम करके 3 कर दी गई। इस परिषद् को युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्य शक्ति, देसी रियासतों आदि के अधीक्षण की शक्ति प्रदान की गई। 

• कंपनी के भारतीय अधिकृत प्रदेशों को पहली बार ‘ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश’ कहा गया। 

• इंग्लैंड में 6 आयुक्तों (कमिश्नरों) के एक ‘नियंत्रण बोर्ड’ की स्थापना की गई, जिसे भारत में कंपनी अधिकृत क्षेत्र पर पूरा अधिकार दिया गया। इसे ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ के नाम से जाना गया। इसके सदस्यों की नियुक्ति सम्राट् द्वारा की जाती थी। इसके 6 सदस्यों में एक ब्रिटेन का अर्थमंत्री, दूसरा विदेश सचिव तथा चार अन्य सम्राट् द्वारा प्रिवी कौंसिल के सदस्यों द्वारा चुने जाते थे। 

• इस ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ (नियंत्रण मंडल) को कंपनी के भारत सरकार के नाम आदेशों एवं निर्देशों को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने का अधिकार प्रदान किया गया। 

• गवर्नर जनरल को देसी राजाओं से युद्ध तथा संधि से पूर्व कंपनी के संचालकों से स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया गया। 

• प्रांतीय परिषद् के सदस्यों की संख्या भी 4 से घटाकर 3 कर दी गई। प्रांतीय शासन को केंद्रीय आदेशों का अनुपालन आवश्यक कर दिया गया अर्थात् बंबई तथा मद्रास के गवर्नर पूर्णरूपेण गवर्नर जनरल के अधीन कर दिए गए। 

• कंपनी के कर्मचारियों को उपहार लेने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया। 

• भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों के मामलों में सुनवाई के लिए इंग्लैंड में एक कोर्ट की स्थापना की गई। 

सन् 1786 का अधिनियम 

इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद् के निर्णयों को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियाँ भी मिल गईं। 

सन् 1793 का राजपत्र 

कंपनी के कार्यों एवं संगठन में सुधार के लिए यह चार्टर पारित किया गया। इस चार्टर की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पूर्व के अधिनियमों के सभी महत्त्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल किया गया था। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं— 

• कंपनी के व्यापारिक अधिकार अगले 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिए गए। 

• विगत शासकों के व्यक्तिगत नियमों के स्थान पर ब्रिटिश भारत में लिखित विधि-विधानों द्वारा प्रशासन की आधारशिला रखी गई। इन लिखित विधियों एवं नियमों की व्याख्या न्यायालय द्वारा किया जाना निर्धारित की गई। 

• गवर्नर जनरल एवं गवर्नरों की परिषदों की सदस्यता की योग्यता के लिए सदस्य को कम-से-कम 12 वर्षों तक भारत में रहने का अनुभव आवश्यक कर दिया गया। 

• नियंत्रण मंडल के सदस्यों का वेतन अब भारतीय कोष से दिया जाना तय हुआ। 

सन् 1813 का राजपत्र 

कंपनी के एकाधिकार को समाप्त करने, ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धार्मिक सुविधाओं की माँग, लॉर्ड वेलेजली की भारत में आक्रामक नीति तथा कंपनी की शोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण सन् 1813 का चार्टर अधिनियम ब्रिटिश संसद् द्वारा पारित किया गया। इस एक्ट का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी था कि इसके आधार पर ब्रिटिश सरकार ने भारत में साहित्य, संस्कृति, शिक्षा एवं विज्ञान के संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार के लिए एक लाख रुपए वार्षिक खर्च करना स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार शासकों ने शासितों के नैतिक एवं बौद्धिक विकास का दायित्व एक सीमा तक ले लिया था। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे— 

• कंपनी का भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, यद्यपि उसका चाय और चीनी के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा। 

• ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म-प्रचार की अनुमति दी गई। 

• कंपनी को अगले 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया। 

• नियंत्रण बोर्ड की शक्ति परिभाषित तथा उसका विस्तृत की गई।

सन् 1833 का राजपत्र 

इस महत्त्वपूर्ण एक्ट के द्वारा ब्रिटिश शासन ने ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतः समाप्त कर दिया था। अब अगले 20 वर्षों के लिए वह केवल प्रशासक-संस्था बनकर रह गई। इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को गवर्नर के पद से मुक्त कर दिया गया था। उसकी कार्यकारिणी परिषद् में कानून बनाने के लिए एक विधि सदस्य नियुक्त कर दिया गया। इस प्रकार भारत में विधान परिषद् की व्यवस्था हुई। इतना ही नहीं, विभिन्न कानूनों को संहिताबद्ध करने के उद्देश्य से विधि आयोग (Law Commission) का गठन किया गया। इस एक्ट के आधार पर भारत में दास-प्रथा समाप्त करने की घोषणा भी की गई। कंपनी के अधीन सेवाओं में योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ होना इस एक्ट का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष था। 

सन् 1813 के अधिनियम के बाद भारत में कंपनी के साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाब, सिंध, ग्वालियर, इंदौर आदि पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी प्रभुत्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सन् 1833 का चार्टर अधिनियम पारित किया गया।

इसके मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे— 

• कंपनी के चाय एवं चीनी के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर उसे पूर्णतः प्रशासनिक और राजनीतिक संस्था बना दिया गया। 

• बंगाल के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत का गवर्नर जनरल घोषित किया गया। संपूर्ण भारत का प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक बना।

• भारत के प्रदेशों पर कंपनी के सैनिक तथा असैनिक शासन के निरीक्षण और नियंत्रण का अधिकार भारत के गवर्नर जनरल को दिया गया। भारत के गवर्नर जनरल की परिषद् द्वारा पारित कानूनों को अधिनियम की संज्ञा दी गई। 

• विधि के संहिताकरण के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। 

• भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया। फलस्वरूप सन् 1843 में भारत में दास-प्रथा की समाप्ति की घोषणा हुई। 

• इस अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि कंपनी के प्रदेशों में रहनेवाले किसी भी भारतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्मस्थान इत्यादि के आधार पर कंपनी के किसी पद से, जिसके वह योग्य हो, वंचित नहीं किया जाएगा। 

• सपरिषद् गवर्नर जनरल को ही संपूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया और मद्रास-बंबई की परिषदों के कानून बनाने के अधिकार समाप्त कर दिए गए। इस अधिनियम द्वारा भारत में केंद्रीकरण प्रारंभ किया गया, जिसका सबसे प्रबल प्रमाण विधियों को संहिताबद्ध करने के लिए एक आयोग का गठन था। इस आयोग का प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले को नियुक्त किया गया।

सन् 1853 का राजपत्र 

ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार-पत्र को 20 वर्ष बाद सन् 1853 में पुनः लागू किया गया। संवैधानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण यह अपनी तरह का अंतिम अधिनियम है। ब्रिटिश संसद् में जब सन् 1833 के अधिनियम पर वाद-विवाद चल रहा था, तब कंपनी को राजनीतिक शक्ति हस्तांतरित करने पर कई आपत्तियाँ उठाई गई थीं। जब सन् 1853 में पुनः आज्ञा-पत्र देने का समय आया, तब भारतीयों ने इसका विरोध किया। 

इसका मुख्य कारण था—

सन् 1833 के अधिनियम की धाराएँ। इनके अनुसार, उच्च पदों पर योग्य भारतीयों को नियुक्त किया जा सकता था; किंतु बीस वर्षों में एक भी भारतीय की नियुक्ति उच्च पद पर नहीं की गई। तीनों प्रेसीडेंसियों (महाप्रांतों) के निवासियों ने भी आज्ञा-पत्र को जारी रखने के विरुद्ध एक आवेदन-पत्र दिया था। यह अधिनियम मुख्यतः भारतीयों की ओर से कंपनी के शासन की समाप्ति की माँग तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित था।

इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं— 

• ब्रिटिश संसद् को किसी भी समय कंपनी के भारतीय शासन को समाप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया। 

• कार्यकारिणी परिषद् के कानून द्वारा सदस्य को परिषद् के पूर्ण सदस्य का दर्जा प्रदान किया गया।

• बंगाल के लिए पृथक् गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। 

• गवर्नर जनरल को परिषद् के उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार दिया गया। 

• विधायी कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से पृथक् करने की व्यवस्था की गई। 

• निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई। 

• कंपनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगितात्मक परीक्षा की व्यवस्था की गई। 

• भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में विधि आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।

ब्रिटिश सरकार के अधीन स्वतंत्रता के लिए भारत में सन् 1857 की क्रांति के पश्चात् ब्रिटिश सम्राट्/सम्राज्ञी ने भारत की शासन-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करते हुए कुछ अधिनियम पारित किए; जैसे—  


सन् 1858 का अधिनियम 

‘भारत सरकार का बेहतर अधिनियम’ कहे जानेवाले इस अधिनियम के अंतर्गत भारत के शासन का उत्तरदायित्व ईस्ट इंडिया कंपनी से हटाकर सम्राट् (सम्राज्ञी) को हस्तांतरित कर दिया गया। यह भारतीय संविधान के विकास में एक क्रांतिकारी घटना थी। इससे ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार-क्षेत्र में आनेवाले समस्त भारतीय क्षेत्र सम्राट् के क्षेत्राधिकार में आ गए। इस प्रकार उक्त अधिनियम से भारत के संवैधानिक विकास में एक युग समाप्त हो गया और दूसरे का शुरुआत हुआ।

 महत्वपूर्ण तथ्य 

• सन् 1786 में गवर्नर को अपनी परिषद् की राय ठुकरा देने का अधिकार दे दिया गया। 

• गवर्नर जनरल द्वारा बनाए गए कानूनों को ‘रेग्युलेशंस’ कहा जाता था। 

• मैकॉले गवर्नर जनरल की परिषद् का प्रथम कानूनी सदस्य था। 

• सन् 1833 में विधि आयोग का गठन किया गया तथा उसे भारतीय कानूनों को संचित तथा संहिताबद्ध करने को कहा गया। 

• विलियम बैंटिक भारत का प्रथम गवर्नर जनरल था। उसे ही बंगाल का अंतिम गवर्नर जनरल होने को श्रेय प्राप्त है। 

• सन् 1858 के भारत सरकार अधिनियम के तहत गवर्नर जनरल को वाइसराय का नाम दिया गया। 

• सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् के लिए चुने वाले प्रथम भारतीय थे। उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था। 

• सन् 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत सर्वप्रथम प्रत्यक्ष चुनाव प्रारंभ हुए तथा पृथक सामुदायिक प्रतिनिधित्व की स्थापना 1909 मार्ले-मिंटो सुधारों में की गई थी। 

• लार्ड मिंटो को ‘सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल’ का जनक माना जाता है। 

• प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था सन् 1919 के भारत सरकार अधिनियम या मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत लागू हुई थी।

सिख, एंग्लो इंडियन, ईसाइयों तथा यूरोपियों को सन् 1935 में पृथक् सामुदायिक प्रतिनिधित्व मिला था।

यद्यपि इस अधिनियम से सत्ता में परिवर्तन आया, तथापि वास्तविक शक्ति के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसने सम्राट् को भारत-मंत्री की नियुक्ति का अधिकार दिया, जिसे संचालक मंडल एवं नियंत्रण संघ की समस्त शक्तियां हस्तांतरित कर दी गईं। अब भारत-मंत्री के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वह ब्रिटिश संसद् के दोनों सदनों के समक्ष भारत सरकार के गत वर्ष के राजस्व, व्यय तथा भारतीय जनता की भौतिक एवं नैतिक उन्नति के संदर्भ में वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करे। भारत-मंत्री का वेतन इस अधिनियम के आधार पर भारतीय राजस्व से दिया जाने लगा। भारत-मंत्री की सहायता के लिए इंडिया कौंसिल की 15 सदस्यीय एक संस्था भी गठित की गई, जिसके सदस्यों को भी भारतीय राजस्व से ही वेतन दिए जाने का विधान था। 1 नवंबर, 1858 को ब्रिटेन की महारानी ने भारतीय शासन के बारे में पूर्ण उत्तरदायित्व लेने की घोषणा करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत के पूर्व अधिकृत प्रदेशों के अतिरिक्त शेष प्रदेशों को अपने अधीन न करने का विश्वास व्यक्त किया। साथ ही धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर बल दिया। इस घोषणा का भारत में आशातीत स्वागत हुआ। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद् ने कई अधिनियम पारित किए, जो भारतीय प्रशासन का आधार बने। 

सन् 1858 के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे— 

• भारत में कंपनी के शासन को समाप्त कर शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश संसद् को सौंप दिया गया। 

• अब भारत का शासन ब्रिटिश सम्राज्ञी की ओर से राज्य सचिव को चलाना था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद् का गठन किया गया। अब भारत के शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई। • भारत के गवर्नर जनरल का नाम ‘वाइसराय’ (क्राउन का प्रतिनिधि) कर दिया गया तथा उसे भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया। 

• भारत मंत्री को वाइसराय से गुप्त पत्र-व्यवहार तथा ब्रिटिश संसद् में प्रति वर्ष भारतीय बजट पेश करने का अधिकार दिया गया। 

• कंपनी की सेवा को ब्रिटिश शासन के अधीन कर दिया गया।

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861

इस अधिनियम के पूर्व सन् 1859 में ‘कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर्स एक्ट’, सन् 1860 में ‘इंडियन पेनल कोड’ और सन् 1861 में ‘फौजदारी कानून’ बनाए जा चुके थे। सन् 1858 के अधिनियम की अपेक्षा ये अधिनियम अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें कई परिवर्तन किए गए थे, जिनका संविधान की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘भारत के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सन् 1861 के अधिनियम के साथ भारत में एक नए युग का सूत्रपात हुआ।’’ वस्तुतः 1861 का भारतीय परिषद् अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है। यह दो मुख्य कारणों से महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसने गवर्नर जनरल को अपनी विस्तारित परिषद् में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार दिया। दूसरा यह कि इसने गवर्नर जनरल की परिषद् की विधायी शक्तियों का विकेंद्रीकरण कर दिया अर्थात् बंबई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गई। 

इस अधिनियम की अन्य महत्त्वपूर्ण बातें निम्नलिखित थीं— 

• गवर्नर जनरल की विधान परिषद् की संख्या में वृद्धि की गई। अब इस परिषद् में कम-से-कम 6 तथा अधिकतम 12 सदस्य हो सकते थे। उनमें कम-से-कम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होना जरूरी था। 

• गवर्नर जनरल को विधायी कार्यों हेतु नए प्रांत के निर्माण का तथा नव-निर्मित प्रांत में गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। 

• गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया। सन् 1865 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को प्रेसीडेंसियों तथा प्रांतों की सीमाओं को उद्घोषणा द्वारा नियत करने तथा उनमें परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया। इसी तरह सन् 1869 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विदेश में रहनेवाले भारतीयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया। 1873 के अधिनियम के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को किसी भी समय भंग करने का प्रावधान किया गया। इसी के अनुसरण में 1 जनवरी, 1874 को ईस्ट इंडिया कंपनी भंग कर दी गई।

 



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