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The Battle of Panipat : 1526 A.D. पानीपत का प्रथम युद्ध

पानीपत का प्रथम युद्ध (सन् 1526 ई.)

पानीपत का प्रथम युद्ध (सन् 1526 ई.)
The battle of Panipat : 1526 A.D. in Hindi


(The Battle of Panipat : 1526 A.D.)

बाबर सरहिन्द से अम्बाला होते हुए पानीपत के मैदान में गया और यहाँ रुक गया। इब्राहीम को आलम खाँ के विरुद्ध सफलता मिल चुकी थी, अतः उसने भी बाबर का सामना करने के लिए दिल्ली के उत्तर की ओर कूच किया और पानीपत में पहुँच गया। हिसार-फिरोजा का शिकदार हमीद खाँ सेना लेकर इब्राहीम का साथ देने के लिए आ रहा था, उसे हुमायूँ ने पराजित कर दिया। इब्राहीम की सेना के अग्रिम दस्ते को जुनैद बरलास ने पराजित कर दिया। इस दस्ते का नेतृत्व हातिम खाँ कर रहा था। ये बाबर की प्रारम्भिक विजयें थीं। बाबर ने आलम खाँ का विशेष ध्यान रखा और उसे एक दस्ते का नेतृत्व भी सौंपा क्योंकि वह इस लोदी राजकुमार का पूरा राजनीतिक लाभ उठाना चाहता था।1 दोनों पक्षों की सैनिक शक्ति के बारे में इतिहासकारों के मत पृथक्‌-पृथक् हैं। फरिश्ता और अबुल फजल के मतानुसार बाबर की सेना में 12 हजार और इब्राहीम की सेना में एक लाख सैनिक थे। बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उसने केवल 12 हजार सैनिकों की सहायता से इब्राहीम लोदी को पराजित किया था। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार बाबर की सेना में 25 हजार से कम सैनिक नहीं हो सकते क्योंकि 12 हजार सैनिक उसके साथ काबुल से आए थे। इसके बाद गजनी, लाहौर, बदख्साँ की सेनाएँ भी आकर उससे मिल गई थीं। इब्राहीम के पास अधिकतम प्रभावशील सैनिक 50 हजार से अधिक नहीं हो सकते थे क्योंकि तुलगमा में दस हजार सैनिकों से एक लाख सैनिकों को नहीं घेरा जा सकता। बाबर ने जिस युद्ध—नीति को अपनाया वह मूल रूप में रक्षात्मक थी और आवश्यकता पड़ने पर उसे आक्रामक बनाया जा सकता था। उसने सात सौ गतिशील गाड़ियों की पंक्ति ‘अराबा’ का निर्माण किया। इन गाड़ियों को गीली खालों से बाँध दिया गया था और सेना के आगे इसे रक्षा पंक्ति के रूप में रखा गया था। इस पंक्ति के बीच-बीच में स्थान छोड़ दिया गया था जिससे सैनिक आगे बढ़कर शत्रु पर आक्रमण कर सकें। उसने तोपों के प्रत्येक जोड़े के बीच तोपचियों की शरण के लिए ‘टूरा’ या बचाव स्थान बनाए थे। तोपों के पीछे घुड़सवार सेना यकायक आक्रमण करने के लिए थी। दूसरी ओर इब्राहीम लोदी की सेना में परम्परागत चार भाग थे—अग्रगामी दल, केन्द्रीय दल, वामदल और दक्षिण दल। मुख्य आक्रामक शक्ति केन्द्रीय दल में थी। इब्राहीम के पास तोपों या बन्दूकों का अभाव था। यद्यपि इब्राहीम स्वयं साहसी तथा वीर सैनिक था लेकिन उसमें उत्तम सेनानायक के गुण नहीं थे। यह ठीक कहा गया है कि एक ओर निराशाजनित साहस और वैज्ञानिक युद्ध प्रणाली के कुछ साधन थे, दूसरी ओर, मध्यकालीन ढंग के सैनिकों की भीड़ थी जो भालों और धनुष-बाणों से सुसज्जित थी जो मूर्खतापूर्ण तथा अव्यवस्थित ढंग से जमा हो गई थी। एक सप्ताह तक दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने पड़ी रहीं। बाबर चाहता था कि इब्राहीम आक्रमण करे। अन्त में इब्राहीम ने ही आक्रमण करने का निश्चय किया और उसने अपने अधिकारियों तथा सैनिकों में वह धन बाँट दिया जो वह लाया था जिससे वे उत्साहपूर्वक युद्ध कर सकें। 21 अप्रैल, सन् 1526 ई. को प्रातः इब्राहिम की सेना ने आक्रमण किया। अराबा के कारण इब्राहीम की सेना आगे नहीं बढ़ सकी और केन्द्र के सीमित स्थान में भीड़ के समान एकत्रित हो गई। इसी समय तोपों के सामने तथा तुलगमा द्वारा मुगल अश्वारोही सैनिकों ने लोदी सेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण कर दिया। दोपहर तक लोदी सेना पूर्ण रूप से पराजित हो गयी। उसके 15 हजार सैनिक मारे गए। स्वयं इब्राहीम लोदी भी मारा गया। बाबर ने लिखा है कि, “जिस समय युद्ध आरम्भ हुआ, सूर्य आकाश में चढ़ चुका था और मध्याह्न तक युद्ध चलता रहा, अन्त में शत्रु-दल छिन्न-भिन्न हो गया और खदेड़ दिया गया और मेरे सैनिक विजयी हुए।” पानीपत का युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। विजय के उपरान्त बाबर ने हुमायूँ को आगरा पर तथा अपने बहनोई महेदी ख्वाजा को दिल्ली पर अधिकार करने के लिए भेज दिया। 27 अप्रैल, सन् 1526 ई. को दिल्ली की जामा मस्जिद में बाबर के नाम पर खुतबा पढ़ा गया। दिल्ली होता हुआ बाबर आगरा आया। 10 मई, सन् 1526 ई. को उसने नगर में प्रवेश किया और इब्राहीम के महल में ठहरा। 

पानीपत के प्रथम युद्ध के परिणाम

(Consequences of Panipat Battle)

भारत के मध्यकालीन इतिहास में पानीपत का युद्ध एक युगान्तरकारी घटना थी। इसके निम्नांकित दूरगामी परिणाम हुए— 

प्रथम, यह युद्ध अफगानों के लिए अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुआ और उनका राज्य समाप्त हो गया। बाबर ने लिखा है कि आगरा पहुँचकर ज्ञात हुआ कि 40 या 50 हजार व्यक्ति मारे गए थे। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव ने लिखा है कि, “लोदियों की सैन्य-शक्ति पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न हो गई और उनका राजा युद्ध-क्षेत्र में मारा गया। कम से कम गणना के अनुसार उनके 20 हजार सैनिक हताहत हुए। हिन्दुस्तान की सर्वोच्च सत्ता कुछ काल के लिए अफगान जाति के हाथ से निकलकर मुगलों के हाथों में चली गई। डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी ने लिखा है कि, “इससे लोदी वंश का भाग्य-सूर्य स्थायी रूप से उसी प्रकार अस्त हो गया जिस प्रकार उसके पूर्वज तैमूर के हाथों तुगलक वंश का अन्त हुआ था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप अफगानों का निर्बल संगठन बुरी तरह भय-त्रस्त हो गया। विजेता के भय से सैनिक भागे और किसान भी।” 

द्वितीय, इस युद्ध के परिणामस्वरूप मुगल राजवंश की स्थापना हुई जिसने दो सौ वर्षों के समय में, श्रेष्ठ एवं कुशल प्रशासक दिए और इस काल में भारतीय-इस्लामिक संस्कृति का विकास हुआ। इस प्रकार कला, साहित्य, सामाजिक व आर्थिक जीवन के क्षेत्रों में एक नवीन युग का आरम्भ हुआ। कुछ-विद्वान् पानीपत युद्ध की तुलना क्लाइव के प्लासी के युद्ध से भी करते हैं, क्योंकि एक के द्वारा भारत में मुगल शासन तथा दूसरे के द्वारा ब्रिटिश शासन की स्थापना हुई थी। 

तृतीय, जहाँ तक बाबर का सम्बन्ध है, पानीपत में विजय के पश्चात् उसके भटकने वाला जीवन समाप्त हो गया। अब उसके समक्ष भारत में मुगल राज्य को दृढ़ और सुरक्षित करने का कार्य था। इस सम्बन्ध में रशब्रुक विलियम्स ने लिखा है कि, “इस युद्ध में विजय होने से बाबर के दुर्दिनों का अन्त हो गया और उसको अब अपने प्राणों तथा सिंहासन की सुरक्षा के लिए चिन्ताग्रस्त रहने की आवश्यकता नहीं रही। उसको तो अब अपनी असीम शक्ति तथा प्रतिभा का प्रयोग अपने राज्य विस्तार के लिए करना था।” 

चतुर्थ, इस विजय ने बाबर को उत्तर भारत का राज्य प्रदान नहीं किया था। उसकी इस विजय को पूर्ण रूप से अन्तिम भी नहीं कहा जा सकता था। बाबर के अधिकार में केवल दिल्ली और आगरा ही थे। बिहार में अफगान पुनर्गठित हो रहे थे और राजपूत राणा सांगा के नेतृत्व में दिल्ली का दावा कर रहे थे। यह एक संयोग ही था कि गुजरात के सुल्तान मुहम्मदशाह के आक्रमण की आशंका के कारण राणा सांगा पानीपत के युद्ध के समय नहीं पहुँच सका था। पानीपत के युद्ध के 15 दिन पहले ही सुल्तान की मृत्यु हो गई थी और यह युद्ध की तैयारी के लिए पर्याप्त समय नहीं था।


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