Advertisement

भक्ति आन्दोलन (Essay on The Bhakti Movement in Hindi)

Source : BookIndian Medieval History Written by V.D Mahajan | Uniexpro.in 



The Bhakti Movement in Hindi (in Devanagari Script) | Indian Medieval History | Uniexpro.in
The Bhakti Movement in Hindi (in Devanagari Script) | Indian Medieval History | Uniexpro.in


भक्ति आन्दोलन (The Bhakti Movement) 

सल्तनत काल सैनिक संघर्ष के साथ-साथ धार्मिक संघर्ष का काल भी था। इस संघर्ष का कारण तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारी थे जो सैनिक विजय के साथ धार्मिक विजय भी चाहते थे। उनका उद्देश्य इस्लाम का प्रचार करना था तथा भारत को दारुल इस्लाम बनाना था। अतः यह संघर्ष सैनिक क्षेत्र के साथ सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में भी हुआ। इसके फलस्वरूप भक्ति आन्दोलन का जन्म हिन्दू समाज में हुआ जिसे मुसलमानों के अनेक वर्गों का, विशेष रूप से सूफियों का समर्थन प्राप्त था। इस प्रकार भक्ति काल मध्यकालीन भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी। 

इसका उद्देश्य :- 

एक ओर निराश हिन्दुओं में आशा का संचार करना, उन्हें सामाजिक तथा धार्मिक आस्था प्रदान करना तथा दूसरी ओर, उस सामान्य भूमि की खोज करना था जिससे हिन्दू धर्म व समाज तथा मुस्लिम समाज व धर्म में सहयोग तथा सद्‌भावना की स्थापना हो सके। भक्ति आन्दोलन ने एक सीमा तक इस आवश्यकता को पूरा किया। 

 धर्म मनुष्य के जीवन का आवश्यक अंग है और आध्यात्मिक खोज मनुष्य की शाश्वत आकांक्षा है। ब्रह्मा तथा आत्मा का अस्तित्व, मोक्ष प्राप्त करने की महती आकांक्षा तथा सृष्टि के रहस्यों को जानने का प्रयत्न मनुष्य ने आदि काल से किया है। यह आध्यात्मिक खोज निरन्तर गतिशील रही है। प्राचीन भारत में वेदों तथा उपनिषदों में भारतीयों ने यह प्रयास किया और एक धर्म का रूप स्थापित किया। इसके बाद बौद्ध धर्म, जैन धर्म, भागवत धर्म तथा शैव धर्म ने विभिन्न दर्शन तथा जीवन मार्गों की स्थापना की जिससे मनुष्य चिर-शान्ति तथा चिर-सुख को प्राप्त कर सके। 

इस आध्यात्मिक गवेषणा के फलस्वरूप प्राचीन भारतीयों ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए तीन मार्गों की स्थापना की थी—

ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग। ज्ञान मार्ग तथा कर्म मार्ग प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है क्योंकि वे जटिल तथा कष्टसाध्य मार्ग हैं लेकिन भक्ति मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरलता से उपलब्ध है। 

अतः भक्ति मार्ग को अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। 

भक्ति का उद्‌भव—

भक्ति आन्दोलन के उद्‌भव के बारे में पाश्चात्य विद्वान् वेबर का मत है कि मोक्ष के लिए भक्ति का सिद्धान्त ईसाई धर्म से ग्रहण किया गया। ग्रियर्सन ने भी इसी प्रकार विचार व्यक्त किया था। इस मत को कोई विद्वान् स्वीकार नहीं करता है क्योंकि भारतीय सन्तों तथा ईसाई विद्वानों के सम्पर्क का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। दूसरी ओर युसुफ हुसैन ने मत व्यक्त किया है कि मध्यकालीन आध्यात्मवाद पर इस्लाम का प्रभाव था। वह लिखते हैं कि, “मध्यकालीन भारत का भक्ति आन्दोलन हिन्दू समाज पर इस्लामी संस्कृति और विचारों के प्रभावी अतिक्रमण का प्रथम संकेत देता है।” उनका कहना है कि यद्यपि भक्ति आन्दोलन मूल रूप में भारतीय था, तदापि चौदहवीं शताब्दी का भक्ति आन्दोलन, मूल भक्ति आन्दोलन से भिन्न था क्योंकि इसमें मनुष्य की समानता की जो बात कही गई, वह इस्लाम के प्रभाव के कारण थी।

 इस प्रकार भक्ति आन्दोलन पर इस्लाम के प्रभाव के पक्ष में तीन तर्क दिए जाते हैं—

(1) उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक रामानन्द को इस्लामी विचारों से प्रेरणा मिली होगी, 

(2) इस्लाम के एकेश्वरवाद तथा मनुष्य की समानता के सिद्धान्तों का उन पर प्रभाव पड़ा होगा, 

(3) इस्लाम का आगमन एक चुनौती के रूप में हुआ। जब मुसलमानों ने मन्दिरों तथा मूर्तियों को ध्वस्त किया, बलात् धर्म परिवर्तन किए। इस निराश वातावरण में भक्ति आन्दोलन इस्लाम की प्रतिक्रिया के रूप में उद्‌भूत हुआ। 

जहाँ तक इन तर्कों का प्रश्न है—

(1) कोई प्रमाण नहीं है कि रामानन्द को इस्लाम से कोई प्रेरणा प्राप्त हुई, 

(2) मनुष्य की समानता का सिद्धान्त केवल मुसलमानों के लिए था और हिन्दू इसकी वास्तविकता को जानते थे, 

(3) भक्ति आन्दोलन की आत्मा—भारतीय थी और हो सकता है कि इस्लाम के विरुद्ध हिन्दू समाज को सुरक्षित करने के लिए इसका स्वरूप व्यापक कर दिया गया था। भक्ति भावना हिन्दू के अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों में विशद् रूप में पायी जाती है। वैदिक साहित्य में आर्यों द्वारा शिव, विष्णु की उपासना का विवरण प्राप्त होता है। भक्ति का अर्थ पूर्ण समर्पण है। ऋग्वेद की ऋचाओं में इस प्रकार के पूर्ण समर्पण का उल्लेख प्राप्त होता है। भागवत पुराण में कहा गया है कि पूर्ण भक्तिभाव से भगवान की उपासना से मोक्ष प्राप्त होता है। एक सूत्र में कहा गया है कि ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति ही भक्ति है, भगवद्‌गीता में भक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप है जब कृष्ण पूर्ण समर्पण का उपदेश देते हैं। ईसा के पूर्व ही भागवत धर्म का विकास हो गया था जिसका आधार भक्तिभाव है। इसमें निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ईश्वर की स्थापना की गई। भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों की कल्पना की गई और उनकी मूर्तियों की भक्तिभाव से उपासना आरम्भ हुई। अलबरूनी ने कृष्णोपासना का उल्लेख किया है। अतः मध्यकालीन भारतीय भक्ति आन्दोलन का प्रेरणा स्रोत भारतीय दर्शन था। इस पर ईसाई या इस्लाम धर्म का प्रभाव नहीं था।


भक्ति आन्दोलन के कारण (Causes of Bhakti Movement) 

संक्षेप में मध्यकालीन भारत में भक्ति आन्दोलन के व्यापक प्रसार के कारण निम्नलिखित थे— 

(1) सरल धर्म की आकांक्षा—

जनसाधारण के लिए कर्मकाण्ड प्रधान या ज्ञानमार्ग को अपनाना कठिन था। वे ऐसा धर्म चाहते थे जिसमें पुरोहितवाद न हो। भागवत धर्म के उत्थान के बाद ही याज्ञिक कर्मकाण्ड कम होते जा रहे थे। भक्ति आन्दोलन इस प्रकार के रूढ़िवादी विचारों के विरुद्ध था। 

(2) ब्राह्मणवाद की जटिलता

समाज में ब्राह्मणवाद की जटिलता के कारण भी प्रतिक्रिया हो रही थी। ब्राह्मणों ने सर्वोच्च स्थान बनाए रखने के लिए विभिन्न सामाजिक तथा धार्मिक नियमों को बनाया था जिन्हें सामान्य लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। अलबरूनी लिखता है कि, “समाज पर ब्राह्मणों का प्रभुत्व था। वेद अध्ययन, धार्मिक पूजा, आराधना, यज्ञ, अन्य लोगों के लिए वर्जित था। जब शूद्र तथा वैश्य ने वेद अध्ययन तथा आराधना, यज्ञ का प्रयास किया हो तो समकालीन शासकों ने ब्राह्मणों के प्रभाव में आकर उसकी जिह्वा कटवा ली।” समाज में ब्राह्मणों की प्रभुता अन्य वर्गों को स्वीकार नहीं थीप्राचीन काल में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म ने भी यही प्रयास किए थे लेकिन ब्राह्मण वर्ग ने धर्म के स्वरूप तथा उससे सम्बन्धित कर्मकाण्ड पर नियन्त्रण स्थापित करके अपना प्रभुत्व बनाए रखा तथा निम्न जातियों के लिए मोक्ष के द्वार बन्द कर दिएयह धार्मिक असमानता भक्ति आन्दोलन का कारण थी। 


(3) जाति व्यवस्था की जटिलता —

भक्ति आन्दोलन का तीसरा कारण सामाजिक असमानता थी। मध्य काल में जाति व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। अनेक विदेशी वर्गों को हिन्दू समाज में सम्मिलित कर लिया था जिससे हिन्दू समाज में जाति प्रथा जटिल हो गई थीप्रतिलोम विवाह से उत्पन्न सन्तानों का जाति प्रथा में कोई स्थान नहीं थाअस्पृश्यता (छुआछूत) की भावना में वृद्धि हो रही थी। बौद्ध और जैन धर्मों ने भी सामाजिक समानता के सिद्धान्त को स्थापित कर दिया था लेकिन ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना से जाति प्रथा भी जटिल रूप में पुनः स्थापित हो गई थी। अतः भक्ति आन्दोलन इस प्रकार की सामाजिक असमानता के विरुद्ध विद्रोह थाभक्ति के क्षेत्र में सभी बराबर थे। अतः दलितों तथा अस्पृश्यों को समानता का मार्ग उपलब्ध हुआ। ईश्वर को स्मरण करना ही धर्म का प्रमुख लक्षण माना जाने लगा। 

अलबरूनी ने भगवान वासुदेव के शब्दों को इस प्रकार लिखा है कि, “ईश्वर निष्पक्ष भाव से न्याय करता है। यदि कोई ईश्वर को भूलकर सत्कार्य करता है तो वह उसकी दृष्टि में बुरा है। यदि कोई बुरा कर्म करते हुए भी ईश्वर का स्मरण करता है तो वह उसकी दृष्टि में अच्छा है।” 


(4) मुसलमानों के अत्याचार—

भक्ति आन्दोलन दो चरणों में विकसित हुआ था। प्रथम चरण दक्षिण भारत में था जो इस्लाम के आगमन के पूर्व था। उत्तर भारत में भी भागवत धर्म का प्रसार मुसलमानों के आगमन के पूर्व हो रहा था लेकिन तेरहवीं शताब्दी में इस्लाम के उत्तर भारत में आ जाने से स्थिति में परिवर्तन हो गया। मुस्लिम शासकों के संकीर्ण धार्मिक दृष्टिकोण के कारण हिन्दू समाज के लिए अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया। मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं को अपनी प्रजा नहीं माना। उनसे जजिया वसूल किया, उन्हें बलात् मुसलमान बनाया, न बनने पर वध कर दिया। हिन्दुओं को न्याय नहीं मिल सकता था। मन्दिरों तथा मूर्तियों का विनाश करके हिन्दुओं का सांस्कृतिक संहार किया गया। अतः ऐसी स्थिति में हिन्दुओं ने ईश्वर की भक्ति में शान्ति प्राप्त की जो दुष्टों तथा अत्याचारियों के विनाश के लिए समय-समय पर अवतार लेता है। इससे पलायनवाद की भावना का भी जन्म हुआ। 


(5) इस्लाम का प्रचार—

मुसलमान शासकों का उद्देश्य इस्लाम का प्रसार करना थाउलेमा वर्ग इसकी माँग करता रहता था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए विभिन्न साधनों का प्रयोग किया जा रहा था। मुस्लिम शासकों की नीति थी कि दलित वर्गों को सरलता से प्रलोभन दिया जा सकता था। अतः भक्ति आन्दोलन का एक कारण हिन्दू समाज का संगठन दृढ़ करना तथा उसकी रक्षा करना था। इसलिए इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हिन्दू समाज को जनवादी बनाना आवश्यक हो गया था। इसके लिए निम्न जातियों को समानता देना तथा मोक्ष के लिए उनको द्वार खोलना आवश्यक हो गया था। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं कि, “ये मुल्ला-मौलवी एकेश्वर की सत्ता पर जोर देते थे तथा हिन्दू धर्म और दर्शन की आलोचना करते रहते थे और हर प्रकार के साधन अपना कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयत्न करते रहते थे। अतः हिन्दुओं ने अपने धर्म के दोषों को, विशेषकर जाति-पाँति तथा मूर्ति-पूजा से सम्बन्धित बुराइयों को दूर कर अपनी रक्षा को चेष्टा की थी।” 


(6) इस्लाम का प्रभाव—

भारत में इस्लाम के आने के पूर्व भक्ति आन्दोलन चल रहा था। एकेश्वरवाद तथा मानव समानता के सिद्धान्त हिन्दुओं को मालूम थे और दक्षिण भारत में आल्वार सन्तों ने इनकी स्थापना भी कर दी थी, लेकिन इस्लाम का प्रभाव दूसरे प्रकार से पड़ा। एक ओर तो हिन्दू धर्म तथा समाज में सुरक्षा की भावना उत्पन्न हुई तो दूसरी ओर, मुसलमानों से सहयोग तथा सम्पर्क का विकास हुआ। मुसलमानों के भारत में स्थायी बस जाने से इस प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होना स्वाभाविक थासूफी सन्तों तथा हिन्दू भक्तों में निकट सम्बन्ध भी स्थापित हुये। इन सम्बन्धों से हिन्दुओं को इस्लाम को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। इसका प्रभाव यह हुआ कि हिन्दू समाज आडम्बरों तथा अनेक बुराइयों से मुक्त हो गया।


 भक्ति आन्दोलन का स्वरूप तथा विशेषताएँ (Farm and Characteristics of Bhakti Movement

समस्त उत्तर भारत तथा महाराष्ट्र में जो भक्ति आन्दोलन 14वीं तथा 15वीं शताब्दियों में फैला, उसने सन्तों के नवीन वर्ग को जन्म दिया था। इस आन्दोलन का आरम्भ रामानन्द ने किया था लेकिन सन्तों ने जिन भावनाओं को व्यक्त किया, वे कबीर तथा नानक के रूप में अधिक शक्तिशाली ढंग से व्यक्त हुईं। इन सन्तों ने निर्गुण ब्रह्म की आराधना पर जोर दिया और हिन्दू-मुस्लिम समाजों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास भी किया। इन्होंने भक्ति के क्षेत्र में रहस्यवादी धारणा को स्थापित किया और इससे मुस्लिम सूफियों के साथ भी सामंजस्य स्थापित किया। इन भक्तों में कबीर, नानक, दादू, रविदास प्रमुख थे। भक्तों का दूसरा वर्ग था जो सगुण उपासना का समर्थक था और जिसका मुख्य उद्देश्य निराश हिन्दू समाज में आशा तथा विश्वास का संचार करना था। इस समूह में चैतन्य तथा तुलसीदास प्रमुख हैं। 


भक्ति आन्दोलन के निर्गुणमार्गी सन्तों की शिक्षाओं तथा उनके भक्ति के स्वरूप में कुछ सामान्य विशेषताएँ थीं जो इस प्रकार हैं— 

(1) आडम्बरविहीन सरल धर्म—

इन सन्तों ने सरल निर्गुण एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उनके इस धर्माचरण में कर्मकाण्ड या शास्त्रों के अध्ययन का कोई स्थान नहीं था। इसमें पुरोहित की भी कोई आवश्यकता नहीं थी। इसमें ईश्वर के स्मरण मात्र पर जोर दिया गया था। इसमें जीवन की सादगी तथा आचरण की पवित्रता तथा ईश्वर के प्रति निष्ठा का उपदेश दिया गया था। 


(2) मूर्ति पूजा का विरोध—

निर्गुणमार्गी सन्तों ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और ईश्वर को निर्गुण, निराकार तथा सर्वव्यापी माना। इस अवधारणा से वे सूफियों के निकट आ गए। कबीर ने तो राम को निर्गुण ब्रह्म माना और कहा कि, “दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम न जाना।” उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के मर्म अर्थात् रहस्य जानने पर जोर दिया। 


(3) एकेश्वरवाद—

सन्तों ने बहु-देववाद को त्यागकर एकेश्वरवाद में विश्वास प्रकट किया। उनका यह एकेश्वरवाद किसी एक धर्म या सम्प्रदाय के बन्धन में नहीं था। उन्होंने राम और रहीम को एक कहा। 


(4) मनुष्य मात्र की समानता—

सन्तों ने मनुष्य मात्र की समानता का सिद्धान्त स्थापित किया। उन्होंने जाति-पाँति, ऊँच-नीच का विरोध किया। उनका कहना था कि भक्ति के द्वारा कोई भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। त्याग, निष्ठा तथा भक्ति के द्वारा भक्त ब्रह्म से एकाकार कर सकता है। उनकी इन शिक्षाओं का दलित तथा निम्न वर्गों पर गहरा प्रभाव पड़ा। रामानन्द ने कबीर और रविदास को शिष्य बनाया तथा गोसाईं विट्ठलनाथ ने रसखान को उपदेश दिया। इस प्रकार इन सन्तों ने जाति या धर्म के अन्तर को ही अस्वीकार कर दिया। युसुफ हुसैन लिखते हैं कि, “वे सबके सब वर्ण व्यवस्था की कठोरता तथा क्रूरता के विरुद्ध प्रचार करते थे तथा ईश्वर की दृष्टि में सम्पूर्ण मानव की समता की घोषणा करते थे। पारस्परिक मातृभाव की शिक्षा तथा अच्छे कर्मों द्वारा प्रत्येक चरमोत्कर्ष की स्थिति में इस्लाम के इस सन्देश में इन लोगों के लिए एक विशेष आकर्षण था।”


(5) गुरु का महत्व—

इन सन्तों ने भक्ति मार्ग पर चलने के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक बताया। ईश्वर सबके हृदयों में निवास करता है लेकिन सांसारिक माया-मोह को नष्ट करके गुरु ईश्वर के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है। अतः बिना गुरु के ज्ञान नहीं हो सकता। कबीर ने तो गुरु को गोविन्द से ऊँचा स्थान दिया क्योंकि गुरु ने ही गोविन्द का ज्ञान कराया है। 


(6) हिन्दू-मुस्लिम एकता—

सन्तों ने सामाजिक समन्वय का कार्य भी किया। उनका उद्देश्य हिन्दू और मुसलमानों में संघर्ष के स्थान पर सहयोग स्थापित करना था। उन्होंने दोनों के दोषों को सामने रखा और उनकी आलोचना की। कबीर इस मामले में अधिक स्पष्ट वक्ता थे। उनका कहना था कि ईश्वर तो सर्वव्यापी है, वह न तो मूर्ति में है और न मस्जिद में। नानक और रविदास ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया। नानक, चैतन्य, नामदेव के शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। 

(7) संन्यास का विरोध—

सन्तों ने त्यागपूर्ण जीवन का उपदेश दिया था लेकिन वे संन्यास के पक्ष में नहीं थे। उनकी शिक्षा थी कि मनुष्य अपने पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए, ईश्वर की उपासना करे। कबीर ने अपने पारिवारिक व्यवसाय जुलाहे का कार्य करते हुए धार्मिक जीवन बिताया था। उन्होंने परिवार के साथ-साथ श्रम की प्रतिष्ठा भी स्थापित की थी। 


(8) धार्मिक सहिष्णुता—

सन्तों ने सभी धर्मों की आधारभूत एकता की स्थापना की और विभिन्न धर्मों को ईश्वर तक पहुँचने के पृथक् मार्ग बताए। इसका प्रभाव यह हुआ कि धार्मिक कट्टरता कम हुई और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता की भावना उत्पन्न हुई। इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि हिन्दुओं का मुसलमान बनना रुक गया। अब हिन्दू समाज में दलितों तथा निम्न वर्गों को सामाजिक तथा धार्मिक समानता प्राप्त हो गई थी। अब हिन्दू समाज में रहकर वे उपासना तथा मोक्ष के अधिकारी बन गए थे। 


(9) निम्न वर्गों का उत्थान—

भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दू समाज की निम्न जातियों को ऊपर उठने का अवसर प्राप्त हुआ। रामानन्द के बारह शिष्य थे। उनमें कई निम्न जातियों के थे, जैसे—धन्ना जाट, सेना नाई, रविदास चमार। उन्होंने मुसलमान कबीर को भी अपना शिष्य बनाया था। इन निम्न जाति के सन्तों ने सरस वाणी में भक्ति काव्यों की रचना की। इस प्रकार भक्ति आन्दोलन ने सामाजिक सुधार का कार्य किया। 


(10) क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य निर्माण—

भक्ति आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण परिणाम क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य का निर्माण था। इन सन्तों ने अपने भक्ति गीतों के लिए स्थानीय भाषा को अपनाया। नानक ने पंजाबी, कबीर तथा नामदेव ने हिन्दी, मीरा ने राजस्थानी, नरसी मेहता ने गुजराती, जायसीतुलसी ने अवधी भाषाओं को अपनाया। हिन्दी साहित्य में यह भक्ति काव्य का काल स्वर्णयुग माना जाता है। 


भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त (Prominent Saints of Bhakti Movement) 

रामानन्द—

उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन को जीवन्त स्फूर्ति तथा नेतृत्व प्रदान करने का श्रेय युग दृष्टा रामानन्द को था। रामभक्ति को जन-आन्दोलन के रूप में परिवर्तित करने का कार्य उन्होंने किया था। विद्वानों के अनुसार उनका जन्म सन् 1299 ई. में प्रयाग के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने वाराणसी में शास्त्रों का अध्ययन किया और स्वामी राघवानन्द से श्री सम्प्रदाय की दीक्षा ली। उन्होंने दक्षिण तथा उत्तर भारत के अनेक तीर्थ स्थानों की यात्रा की। उन्होंने भक्ति को मोक्ष का एकमात्र साधन स्वीकार किया। लेकिन उन्होंने विष्णु के स्थान पर राम को अपना इष्टदेव स्वीकार किया जिन्होंने राक्षसों का वध करके समाज को सुख-शान्ति प्रदान की थी। तत्कालीन उत्तर भारत में हिन्दू समाज को ऐसे ही इष्टदेव की आवश्यकता थी जो म्लेच्छों का वध करके धर्म की पुनः स्थापना करे। अतः रामानन्द ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की उपासना का प्रचार किया। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर आनन्द-भाष्य लिखा जिसमें रामभक्ति को श्रेयस्कर बताया गया है। रामानन्द ने समाज सुधार का कार्य भी किया। यद्यपि वह वर्ण-व्यवस्था को मानते थे, तदापि उन्होंने हिन्दू धर्म और समाज की रक्षा के लिए निम्न जातियों का उत्थान आवश्यक माना। इसके साथ ही उन्होंने नारी-उद्धार का क्रान्तिकारी कार्य किया। रामानुज हरिहरदास ने उनके बारे में लिखा है कि, “रामानन्द ने देखा कि भगवान के शरणागत होकर जो भक्ति के पथ में आ गया, उसके लिए वर्णाश्रम का बन्धन व्यर्थ है, इसलिए भगवत्-भक्त को खान-पान के झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। यदि ऋषियों के नाम गोत्र और परिवार बन सकते हैं तो ऋषियों के पूजित परमेश्वर के नाम पर सबका परिचय क्यों नहीं दिया जा सकता, इस प्रकार सभी भाई-भाई हैं, सभी एक जाति के हैं। श्रेष्ठता भक्ति से होती है, जन्म से नहीं।” उनके बारह शिष्यों में छः ब्राह्मण थे, चार निम्न जाति के लोग थे और दो स्त्रियाँ पद्मावती और सुरसी थीं। मुसलमान कबीर भी उनके शिष्य थे। इस प्रकार उन्होंने वैष्णव धर्म के द्वार जाति, जन्म या धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए खोल दिए। रामानन्द ने अपने उपदेश जनसाधारण तक पहुँचाए। उन्होंने संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को अपने प्रचार का माध्यम बनाया। इससे भक्ति आन्दोलन एक जन आन्दोलन बन गया। इसके साथ ही इन सन्तों ने हिन्दी भाषा में भक्ति गीतों की रचना की जिससे हिन्दी साहित्य समृद्धिशाली हुआ। इस प्रकार रामानन्द ने वैष्णव धर्म में तीन मुख्य सुधार किए। प्रथम, भक्ति मार्ग में जाति भेद को मिटाकर मानव समानता का सिद्धान्त स्थापित किया। द्वितीय, जन भाषा हिन्दी का प्रयोग करके भक्ति का सन्देश जन-जन तक पहुँचाया। तृतीय, उन्होंने लोक मर्यादा की रक्षा करने वाले राम की उपासना को स्थापित किया। उन्होंने शूद्रों को समानता देकर उन्हें धर्म परिवर्तन से रोका और कबीर को अपना शिष्य बनाकर हिन्दू-मुस्लिम समन्वय का मार्ग भी प्रशस्त किया। यह उल्लेखनीय है कि रामानन्द ने वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध नहीं किया। इस दृष्टि से उन्हें रूढ़िवादी भी माना गया है। वस्तुतः रामानन्द के व्यक्तित्व में नवीनता तथा प्राचीनता का संघर्ष था। वह वर्णाश्रम की व्यवस्था को स्वीकार करते थे लेकिन भक्तिमार्ग में उसे आवश्यक नहीं मानते थे। दिनकर ने ठीक ही लिखा है कि, “विचार से वह कठोर वर्णाश्रम समर्थक किन्तु आचार से वह दयालु सन्त थे।” इसलिए उनके शिष्य परम्परावादी तथा परिवर्तनवादी दो भागों में विभाजित हो गए। प्रथम में तुलसीदास तथा नाभादास थे; द्वितीय के प्रतिनिधि विचारक कबीर थे। रामानन्द की मृत्यु की तिथि सन् 1410 ई. मानी जाती है। सन्त कबीर : उनकी शिक्षाएँ (Saint Kabir : His Teachings) रामानन्द के शिष्यों में कबीर का ऊँचा स्थान था। कबीर ने सगुण के स्थान पर निर्गण निराकार ब्रह्म को उपास्य माना और ज्ञान-मार्गी भक्ति का उपदेश दिया। उनके जन्म के बारे मे कई किंवदन्तियाँ हैं। कहा जाता है कि वह वाराणसी में एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे जिसने लोक-लज्जा के कारण उनको नवजात अवस्था में ही एक तालाब के निकट छोड़ दिया था। जुलाहा नूरी तथा उसकी पत्नी नीमा ने इस शिशु का पालन-पोषण किया। विद्वान् उनका जन्म सन् 1440 ई. के लगभग मानते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि सुहरावर्दी सिलसिले के सन्त शेख तकी से उन्होंने दीक्षा ली थी लेकिन इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कबीर ने स्वयं को रामानन्द का शिष्य कहा है, “कासी हम प्रकट भये, रामानन्द चिताये।” अनुश्रुतियों के अनुसार उन्होंने जुलाहे का व्यवसाय करते हुए गृहस्थ जीवन बिताया। उनका पुत्र कमाल और पुत्री कमाली थी। उन्होंने जुलाहे का कार्य करते हुए साधु-सन्तों का सत्संग किया और अपने विचारों का प्रचार कविताओं के द्वारा किया। कबीर को शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी। लेकिन उनकी रचनाओं में उच्चकोटि के विचार तथा आध्यात्मिक अनुभूति है। भक्तिकाल के समस्त भक्तों में उनका स्थान ऊँचा है। उनके विचार क्रान्तिकारी थे और उन्होंने मुख्य रूप से दो उपदेश दिए—प्रथम, बाह्य आडम्बरों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विकास करना; द्वितीय, हिन्दू तथा मुसलमानों के मध्य दूरी कम करके धार्मिक स्तर पर सद्‌भावना स्थापित करना। उन्होंने कुरान और पुराण दोनों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि दोनों अन्तर बढ़ाने वाले थे। उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों तथा मुस्लिम-मुल्लाओं की कटु आलोचना की जो धार्मिक भेदों को गहरा करते थे। उन्होंने मूर्ति-पूजा, अजान आदि कर्मकाण्डों की निन्दा की। उनका उद्देश्य मनुष्य को विभाजित करने वाली सभी बाधाओं को नष्ट करके मनुष्यों के मध्य समानता, भ्रातृत्व की स्थापना पर जोर देना था। उनकी वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। बीजक में तीन भाग हैं—रमैनी, सबद और साखी। उनकी भाषा को सधुक्कड़ी कहा गया है। इसमें अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी के शब्द पाए जाते हैं। 

उनके धार्मिक तथा सामाजिक विचारों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं— 

(1) मानवतावादी—

कबीर ने धर्मों से ऊपर मनुष्यता को स्थान दिया और सभी को एक परमब्रह्म की सन्तान घोषित किया, “एक ही रकत से बने हैं, को ब्राह्मण को सूद्रा। कोई हिन्दू कोई तुरक कहावे, एक जमीं पर रहिया।” 

(2) एकेश्वरवाद—

कबीर ने एकेश्वरवाद-निर्गुण ब्रह्म का उपदेश दिया लेकिन उन्होंने निराकार तथा साकार के विवाद में पड़ने से इन्कार कर दिया और कहा कि निर्गुण ब्रह्म तो इन दोनों से ऊपर है। “कोई ध्यावे निराकार को, कोई ध्यावे आकारा। वह तो इन दोउन से न्यारा जाने जाननहारा।” 

(3) बाह्य आडम्बरों की आलोचना—

कबीर आन्तरिक साधना को महत्वपूर्ण मानते थे और बाह्य आडम्बरों को भक्ति मार्ग की बाधा मानते थे। ब्रह्म तो प्रत्येक प्राणी के अन्तःस्थल में है, वह उसे व्यर्थ में बाहर ढूँढ़ता है। 

उन्होंने हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा की आलोचना करते हुए कहा कि, “पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार। तातें यह चाकी भली, पीस खाय संसार।”

मुसलमानों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि, “कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई चिनाय। ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, बहरा भया खुदाय।” 

(4) गुरु की महत्ता—

कबीर ने अध्यात्म साधना में गुरु को श्रेष्ठ स्थान दिया। उनका मानना था कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए गुरु का मार्ग दर्शन आवश्यक था। वह तो गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान प्रदान करते हैं— गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविन्द दिया बताय।” 

(5) भक्ति की महत्ता—

कबीर ने भक्ति को महत्व प्रदान किया। वह शास्त्रों के ज्ञान को अनावश्यक मानते थे। उनका कहना था कि प्रेम और साधना से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है और सच्चा ज्ञान तो प्रेम है, “पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पण्डित होय।” 

(6) समन्वयवाद—

कबीर के युग में हिन्दू और मुस्लिम दो सभ्यताओं में संघर्ष हो रहा था। कबीर संघर्ष की कटुता को समाप्त करके दोनों के मध्य समन्वय स्थापित करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने दोनों की कटु आलोचना की और उन तत्वों पर जोर दिया जो दोनों के मध्य अच्छे सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। युसुफ हुसैन लिखते हैं कि, “कबीर की शिक्षा न तो हिन्दुओं को प्राथमिकता देती है और न मुसलमानों को। दोनों धर्मों में जो अच्छी बातें हैं, वह उन्हीं की सराहना करते हैं और जो कुछ रूढ़िबद्ध है, उनका खण्डन करते हैं। वे ब्राह्मणों के समान ही मुस्लिम उलेमाओं का तिरस्कार करते हैं।” कबीर का वास्तविक उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करना था इसलिए उन्होंने दोनों की मूर्खताओं को भी स्पष्ट किया जिनके कारण वे आपस में व्यर्थ विवाद करते थे। “भाई रे दुई जगदीश कहाँ ते आया, कहु कौने भरमाया। अल्ला-राम-रहीमा-केसो, हरि-हजरत नाम धराया।” 

(7) दर्शन—

कबीर ने परम ब्रह्म को मूल तत्व माना है जो कण-कण में व्याप्त तथा सर्वव्यापी है। उनका मत था कि संसार मिथ्या है और माया से परिपूर्ण है। वस्तुतः उनकी अवधारणा गीता के निकट है। लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि कबीर ने जो भी ज्ञान प्राप्त किया था, वह सत्संग से प्राप्त किया था। उनका दर्शन वैचारिक न होकर व्यावहारिक था। उन्होंने दार्शनिक विचारों को प्रधानता न देकर आचरण की शुद्धता तथा कर्तव्यों के पालन पर जोर दिया। 

अतः डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का मत है कि कबीर के उद्देश्यों में आध्यात्म को खोजना व्यर्थ है। वह लिखते हैं कि, “कबीर प्रथम श्रेणी के भक्त थे लेकिन सही अर्थों में दार्शनिक नहीं। इसलिए यह पता लगाने के लिए कि वे किस दार्शनिक विचारधारा के थे, उनके पदों का विश्लेषण करना व्यर्थ होगा। 

वास्तव में, हम कबीर में विचारों की विभिन्नता, विशिष्ट अद्वैत और भेदाभेद दोनों ही पाते हैं लेकिन कबीर की विचारधारा में एक बात अलग ही दिखाई पड़ती है—

वह है उनका विशुद्ध अद्वैतवाद और निर्गुण ईश्वर में परम विश्वास। वह परमब्रह्म को कोई नाम नहीं देना चाहते थे लेकिन अगर नाम देना ही पड़े तो वह उसे राम कहते थे। उन्होंने गुरु की आवश्यकता पर जोर दिया लेकिन उन्हें अवतारों में विश्वास नहीं था।” सन् 1510 ई. में उनकी मृत्यु हुई। हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उनके अवशेषों का अन्तिम संस्कार अपनी अपनी पद्धतियों के अनुसार किया। 


गुरु नानकदेव : उनकी शिक्षाएँ (Guru Nanakdev : His Teachings) 

भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्तों में नानक का नाम अग्रणी है। उन्होंने समन्वयवाद का उपदेश दिया और हिन्दू-मुस्लिम एकता के द्वारा सामाजिक सौहार्द्र स्थापित करने का कार्य किया था। उनका जन्म सन् 1469 ई. को गुरु-पूर्णिमा के दिन रावी नदी के तट पर स्थित तलवण्डी गाँव में हुआ था। वह खत्री परिवार के थे। उनके पिता का नाम मेहता कालूचन्द था और वह गाँव के पटवारी थे। बाल्यावस्था में नानक को संस्कृत, हिन्दी और फारसी की शिक्षा प्राप्त हुई थी। बचपन से ही नानक चिन्तनशील थे और उन्हें सांसारिक जीवन के प्रति रुचि नहीं थी। उनको कपूरथला के नवाब के दफ्तर में नौकरी दी गई लेकिन बैरागी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने इसे छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने गृहस्थ जीवन का भी परित्याग कर दिया और अपना समय साधु-सन्तों की संगति में व्यतीत करने लगे। वह अपना समय साधना, उपदेशों में लगाते थे। कबीर के विपरीत नानक सुसंस्कृत, सुशिक्षित व्यक्ति थे लेकिन कबीर के समान वह मानते थे कि पारिवारिक जीवन ईश्वर की साधना में बाधक नहीं था। नानक ने समस्त भारत का भ्रमण किया था। कहा जाता है कि उन्होंने मध्य एशिया, चीन, बर्मा, लंका, अरब, मिस्र आदि देशों की यात्रा की थी। उन्होंने अनेक मुस्लिम सन्तों, जैसे—पानीपत के शेख फरीद, मुल्तान के पीर और पाक पट्टन के शेख इब्राहिम से आध्यात्मिक समस्याओं पर विचार-विमर्श किया था। विस्तृत भ्रमण के परिणामस्वरूप वह अनेक सम्प्रदायों के लोगों के सम्पर्क में आए और उन्हें गहन ज्ञान प्राप्त हुआ। अन्त में वह करतारपुर में बस गए। सन् 1539 ई. में उनकी मृत्यु हुई। उनके पदों तथा गीतों को बाद में आदि ग्रन्थ में संकलित कर दिया गया। उन्होंने पंजाब में धर्म का उपदेश उस समय दिया था जब मुस्लिम कट्टरता के कारण किसी प्रकार का उपदेश देना सम्भव नहीं था। नानक की मुख्य देन यही है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने भक्ति और वैराग्य का उपदेश देकर हिन्दू धर्म की रक्षा की। 

(1) नानक का उद्देश्य—नानक का उद्देश्य हिन्दू धर्म में सुधार करके इससे आडम्बरों तथा जाति प्रथा को समाप्त करना था। वह भी निर्गुण ब्रह्म की उपासना भक्ति के द्वारा करने का आग्रह करते थे। इस उपासना में निम्न हिन्दू जातियों को समानता का अधिकार प्राप्त हुआ। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का भी प्रयास किया लेकिन इस उद्देश्य के लिए उन्होंने कबीर के समान कटु आलोचना का मार्ग नहीं अपनाया बल्कि उन्होंने प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण शब्दों द्वारा उन्हें समझाने का प्रयास किया। 

(2) धार्मिक दृष्टिकोण—

कबीर के समान नानक वेदों या कुरान की सत्ता स्वीकार नहीं करते थे। उनका विचार था कि धार्मिक संकीर्णता से मतभेद उत्पन्न होते हैं अतः मनुष्य को व्यापक तथा उदारवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्होंने सरल धर्म का उपदेश दिया और आडम्बरों का विरोध किया। उन्होंने ब्राह्मणों के पुरोहितवाद तथा मौलवियों की प्रमुखता का विरोध किया। उन्होंने जाति प्रथा का विरोध किया और सभी जाति के लोगों को यहाँ तक अछूतों को भी अपना शिष्य बनाया। उनका कहना था कि, “याद रखो कि कर्म ही जाति को निश्चित करते हैं। मनुष्य अपने स्वयं के कार्यों से श्रेष्ठ या पतित बनता है। जाति भेद की चिन्ता न करो। याद रखो कि ईश्वर का प्रकाश सब व्यक्तियों में है उसके यहाँ जाति भेद नहीं है।” नानक का कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति में चारों वर्णों का समन्वित रूप होना चाहिए। अस्पृश्यता को उन्होंने अपने शिष्यों में मिटा दिया और भ्रातृत्व की स्थापना की। 

(3) निर्गुण की भक्ति—

नानक निराकार ब्रह्म में विश्वास रखते थे जो सर्वव्यापी है। उनका कहना था कि ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना से सरल जीवन बिताने वाले व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि, “इक दू जीभउ लख होय लख बीस। लख लख गेड़ा आखिये एक नाम जगदीश।” अतः नामों की भिन्नता के कारण मनुष्य को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने नैतिकता, नम्रता, सत्य, ज्ञान और दया को पवित्र और सरल जीवन का आवश्यक अंग माना। 

(4) हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल—

नानक ने हिन्दू-मुसलमानों को निकट लाने का कार्य किया। उनका कहना था कि बाह्य भिन्नता को महत्व देने के कारण कटुता उत्पन्न होती है। उनका उपदेश था कि, “मनुष्य मात्र की भलाई करो, मनुष्य मात्र से प्रेम करो तथा प्रत्येक प्राणी से भ्रातृ-भाव से स्नेह करो।” उनका कहना था कि समाज में सौहार्द्र लाने के लिए धार्मिक समन्वय आवश्यक था। एक स्थान पर उन्होंने कहा कि, “पारब्रह्म प्रभु एक है, दूजा नहीं कोई।” उन्होंने यह भी कहा कि उस एकेश्वर की उपासना अनेक मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु, राम और महेश करते हैं। उन्होंने मुसलमानों से कहा कि, “दया को अपनी मस्जिद मानो, भलाई एवं निष्कपटता को अपनी नमाज की दरी मानो, जो कुछ भी उचित एवं न्यायसंगत है, वही तुम्हारी कुरान है। नम्रता को अपनी सुन्नत मान ले, शिष्टाचार को अपना रोजा मान ले और इस प्रकार तू मुसलमान बन जायेगा। हिन्दुओं से उन्होंने कहा कि, मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थों पर स्नान किया है, वनों और जंगलों में निवास किया है और सातों ऊपरी व निचली दुनियाओं का ध्यान किया है और मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि मनुष्य चार कर्मों द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता है—भगवान से भय, उचित कर्म, ईश्वर तथा उसकी दया में विश्वास और एक गुरु में विश्वास जो उचित मार्ग का प्रदर्शन कर सके।” इस प्रकार नानक ने हिन्दू और मुस्लिम धर्मों में आधारभूत एकता स्थापित करने का प्रयास किया। 

(5) गुरु की महत्ता—

कबीर के समान नानक भी धार्मिक जीवन के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक मानते थे। नानक का कहना है कि गुरु के द्वारा ही सांसारिक जीवन का अन्त होता है तथा आध्यात्मिक जीवन आरम्भ होता है। गुरु के उपदेश से अहंकार का नाश होता है और मुक्त अवस्था प्राप्त होती है। वास्तव में, नानक ने गुरु को धार्मिक जीवन का केन्द्र बताया जो आध्यात्म की ओर ले जाता है। (6) समाज सुधार—नानक ने जाति प्रथा का विरोध करके मनुष्य की समानता स्थापित की थी और अस्पृश्यता को पूर्ण रूप से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने स्त्रियों को भी सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान किया और उनके आध्यात्म साधना के अधिकारों को स्वीकार किया। वास्तव में, नानक का उद्देश्य सम्पूर्ण मानवता का उत्थान करना था। अतः उन्होंने भक्ति के साथ सेवा कार्य को विशेष महत्व दिया और शिष्यों को आदेश दिया कि वे प्राणी मात्र की सेवा करें। उन्होंने शिष्यों में भाईचारा स्थापित किया। उनका कहना था कि पापी से नहीं बल्कि पाप से घृणा करनी चाहिए। अतः पतितों से प्रेम करना और सन्मार्ग पर लाना मनुष्य का परम धर्म है। उन्होंने पवित्रता, त्याग पर बल देते हुए नेक कमाई करने का आदेश दिया। नानक गृहस्थ धर्म को श्रेष्ठ मानते थे और उनका विचार था कि गृहस्थ जीवन में मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। नानक की मृत्यु सन् 1538 ई. में हुई। नानक के उपदेशों ने क्रमशः एक सम्प्रदाय का रूप धारण कर लिया। उनके शिष्य सिक्ख कहलाए। उन्होंने मुस्लिम धर्मान्धता का विरोध करने तथा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए सैनिक सम्प्रदाय का रूप धारण कर लिया। 


चैतन्य महाप्रभु : उनकी शिक्षाएँ (Chaitanya Mahaprabhu : His Teachings) 

सगुण उपासना की परम्परा में चैतन्य का स्थान अद्वितीय है। चैतन्य का वास्तविक नाम विश्वम्भर था। उनका जन्म नवद्वीप, आधुनिक नादिया, बंगाल में सन् 1486 ई. को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता जगन्नाथ मिश्र धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। बचपन में इन्हें गौरांग तथा निमाई भी कहा जाता था। बंगाल में वैष्णव धर्म चैतन्य के पूर्व लोकप्रिय हो गया था। जयदेव का ‘गीत गोविन्द’ तथा चण्डीदास के पदों ने पूर्वी भारत में कृष्ण भक्ति को व्यापक बना दिया था। उस समय बंगाल में मुसलमानों के धार्मिक उत्पीड़न से सामान्य हिन्दू जनता भयग्रस्त थी और उनके हिन्दू भागकर नादिया में बस गये थे। नादिया में चैतन्य की शिक्षा हुई। थोड़े समय में ही उन्होंने संस्कृत, व्याकरण, काव्य का अध्ययन पूर्ण कर लिया। नौ वर्ष की आयु में उनके पिता का देहान्त हो गया था। चौदह वर्ष की आयु में उन्होंने कलाप-व्याकरण की टीका लिखी थी। उन्होंने नवद्वीप में न्यायशास्त्र के शिक्षण के लिए पाठशाला स्थापित की थी। सुदूर क्षेत्रों से अनेक छात्र इस पाठशाला में ज्ञानार्जन के लिए आते थे। बाईस वर्ष की आयु में चैतन्य ने ईश्वरपुरी नामक सन्त से दीक्षा ली। ईश्वरीपुरी से उनकी भेंट गया में हुई थी। इस भेंट ने उनके जीवन को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया। गया से वापस आने के बाद चैतन्य गृहस्थ जीवन से विरत हो गए और अब वह संन्यासी बनना चाहते थे। अन्त में चौबीस वर्ष की आयु में उन्होंने केशवभारती से दीक्षा लेकर संन्यास धर्म अपना लिया। लोग उन्हें कृष्ण-चैतन्य कहने लगे। वह पुरी चले गए जहाँ अनेक व्यक्ति उनके शिष्य हो गए। इसके बाद उन्होंने सुदूर दक्षिण, गुजरात, मथुरा, वृन्दावन की यात्राएँ कीं। उनका शेष जीवन पुरी में ही बीता जहाँ सन् 1533 ई. में उनका देहान्त हो गया। 

चैतन्य के उद्देश्य—

इस समय बंगाल में मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था। बौद्ध धर्म का पतन हो रहा था और गोरखपन्थी कनफटे संन्यासियों का प्रभाव स्थापित था। ये संन्यासी हठयोग तथा तन्त्रवाद में विश्वास रखते थे। इस प्रकार धर्म का सदाचारी रूप तथा इष्टदेव के प्रति निष्ठा नष्ट हो चुकी थी तथा धार्मिक, सामाजिक तथा नैतिक पतन का वातावरण बना रखा था। मुस्लिम आक्रान्ताओं ने हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराने के लिए भय तथा प्रलोभन का वातावरण बना रखा था। ब्राह्मणों ने भी अन्य वर्णों पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे थे। अतः चैतन्य का उद्देश्य सरल धर्म की स्थापना के साथ सामाजिक सुधार तथा निम्न जातियों का उत्थान करना भी था। इसके साथ ही हिन्दू-मुसलमानों के मध्य कटुता को दूर करके सद्‌भावना स्थापित करना भी चैतन्य का उद्देश्य था। 

धार्मिक दृष्टिकोण—

चैतन्य कृष्ण के अनन्य भक्त थे। ज्ञान तथा कर्म मार्ग को त्यागकर उन्होंने भक्ति को ही सर्वोच्च स्थान दिया। कृष्ण के प्रति अतिशय अनुराग तथा उनकी भक्ति में तन्मय होकर डूब जाना उनका उपदेश था। उन्होंने कीर्तन को मुख्य साधन माना। यद्यपि सभी सम्प्रदायों में कीर्तन का महत्व है किन्तु चैतन्य ने इसे भक्ति का प्रमुख साधन माना। उनका कहना था कि कलियुग में कीर्तन ही भक्ति का सरलतम साधन था। चैतन्य ने कीर्तन का समस्त देश में प्रचार किया। 

भक्ति भाव—चैतन्य की भक्ति साधना के नौ सिद्धान्त थे— 

(1) एकेश्वरवाद—

चैतन्य एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। एकेश्वर के दो रूप थे—नारायण तथा कृष्ण-राधा। 

(2) आदिशक्ति—

चैतन्य के इष्टदेव ‘हरि’ थे। उनका विश्वास था कि ‘हरि’ आदि शक्ति हैं। 

(3) रस-सागर—

चैतन्य कृष्ण को रस-सागर मानते थे। रस प्रेम का ही रूप है जो इष्ट-उपासक के मध्य होता है। 

(4) जीव-आत्मा—

चैतन्य को आत्मा तथा पुनर्जन्म में विश्वास था। माया के कारण आत्मा कर्मचक्र में बँधा है। 

(5) प्रकृति का बन्धन—

आत्मा प्रकृति, माया के बन्धन में है। कर्म, अकर्म, विकर्म से आत्मा का पतन होता है। 

(6) प्रकृति से मुक्ति—

धर्म, योग, वैराग्य तथा कृष्ण-भक्ति के रस से आत्मा बन्धन से मुक्त होती है। 

(7) अचित्य भेदाभेद—

परमात्मा आत्मा से भिन्न है फिर भी दोनों का अंश एक है। 

(8) भक्ति—

मोक्ष का सरलतम एकमात्र मार्ग भक्ति है जो ज्ञान, कर्म की अपेक्षा स्वतन्त्र साधन है। चैतन्य के अनुसार भक्ति तीन प्रकार की हैं—साधन भक्ति, भाव भक्ति, प्रेमभक्ति। 

(9) वैराग्य—

संसार के प्रति वैराग्य मोक्ष का मार्ग है। 



भक्ति के साधन—

चैतन्य ने भक्ति साधना के विभिन्न उपायों का उल्लेख भी किया है। 

उनके अनुसार ये साधन इस प्रकार हैं—

हरि के नाम, स्वरूप तथा गुण को सुनना, उनके नाम तथा गुणों के गीत गाना उनके नाम तथा गुणों का ध्यान करना, उनके चरणों की सेवा करना, उनकी आराधना तथा पूजा करना उन्हें आत्म-समर्पण करना, उन्हें प्रसन्ना करने के लिए सभी उपाय करना, मैत्रीभाव रखना। संसार से वैराग्य लेकर उनके प्रति पूर्ण समर्पण करना। चैतन्य ने कृष्ण की भक्ति में बाल लीला को महत्वपूर्ण स्थान दिया। यद्यपि वह संन्यासी थे, तदापि उन्होंने गृहस्थ जीवन को महत्व दिया। उन्होंने गुरु की महत्ता स्थापित की और भक्ति भाव के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक माना। चैतन्य ने भक्ति में कीर्तन का ऐसा गहन रूप रखा जिसमें भक्त इतना भावातुर हो जाता था कि इस प्रेमावेश में वह ईश्वर के साक्षात्कार का अनुभव करता था। 

समाज के प्रति दृष्टिकोण—

चैतन्य ने आडम्बरों तथा पुरोहितों को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने जाति या धर्म का कोई भेद नहीं किया और सबको उपदेश दिया। लोग उन्हें कृष्ण का अवतार मानते थे और ‘चैतन्य महाप्रभु’ कहते थे। उन्होंने किसी सम्प्रदाय की स्थापना नहीं की। उनके मुख्य अनुयायियों को वृन्दावन में छः गोस्वामी कहा जाता है। चैतन्य ने जाति-पाँति का विरोध किया। कुलीन वर्ग के अत्याचार से दलित वर्ग पीड़ित था। निम्न वर्गों में से अनेक उनके शिष्य थे। हिन्दू और मुस्लिम समाजों में समन्वय स्थापित करने के लिए उन्होंने मुसलमानों को भी अपना शिष्य बनाया। वास्तव में, चैतन्य का भक्ति भाव मानव प्रेम से भी प्रेरित था। वह मानव कल्याण को कृष्ण-उपासना का आवश्यक अंग मानते थे। कृष्ण भक्ति को उच्च भावावेश प्रदान करना चैतन्य की मुख्य देन है। 

महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन—

महाराष्ट्र में धर्म सुधार तथा सामाजिक परिवर्तन का आरम्भ ज्ञानेश्वर ने किया था। उन्होंने ब्राह्मणों की संकीर्णता तथा जाति-पाँति का विरोध किया। उनके आन्दोलन को पंढरपुर आन्दोलन कहा जाता है। इसमें बिठोवा की पूजा आरम्भ की गई। इस आन्दोलन के दूसरे प्रसिद्ध सन्त नामदेव थे। उनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था लेकिन बाल्यावस्था से ही उन्होंने साधु सेवा और सत्संग में अपना जीवन व्यतीत किया। सन्त ज्ञानेश्वर के प्रति उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी और उन्होंने सन्त के साथ सारे महाराष्ट्र का भ्रमण किया था। सन्त ज्ञानेश्वर की मृत्यु के पश्चात् वह पंजाब में रहने लगे और वहीं अपने मत का प्रचार किया। उन्होंने प्रेम के द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया। कबीर ने नामदेव को आदर्श भक्त माना था। वे राम के उपासक थे और राम को सर्वव्यापी मानते थे। 

भक्ति आन्दोलन के प्रभाव (Effects of Bhakti Movement) 

(1) व्यावहारिक धर्म—

मध्य काल में जब मुस्लिम शासकों के अत्याचार के कारण हिन्दू धर्म का पालन करना असम्भव हो गया था, भक्ति आन्दोलन ने नाम स्मरण मात्र को ही धर्म पालन का स्वरूप निर्धारित कर दिया। इस प्रकार के व्यावहारिक धर्म में मन्दिर, मूर्ति, पुरोहित, शास्त्रों की आवश्यकता नहीं थी। 

(2) हिन्दुओं को आशान्वित करना—

भक्ति आन्दोलन ने हिन्दुओं में आशा का संचार किया। उनकी अपने धर्म में श्रद्धा गहरी हुई। 

(3) समन्वय का दृष्टिकोण—

भक्ति आन्दोलन ने हिन्दू तथा मुसलमानों को निकट लाने में सफलता प्राप्त की जिससे समन्वय के दृष्टिकोण का विकास हुआ। 

(4) संकीर्णता का परित्याग— 

भक्ति आन्दोलन ने सामाजिक तथा धार्मिक संकीर्णता को समाप्त किया और धर्म संगठित हुआ और इस्लाम की चुनौती का सामना करने के लिए तत्पर हो गया। इससे हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन रुक गया। 

(5) मुसलमानों का प्रभाव—

भक्तों तथा सन्तों के मुस्लिम सन्तों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुए। इससे उन्हें एक-दूसरे को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उदार तथा प्रबुद्ध मुसलमानों में हिन्दू धर्म के प्रति आदर उत्पन्न हुआ। शासक वर्ग पर भी इसका प्रभाव पड़ा और मुसलमानों के अत्याचारों में कमी आयी। 

(6) आडम्बरों की समाप्ति—

भक्ति आन्दोलन के कारण कर्मकाण्ड और आडम्बर समाप्त हो गए और ईश्वर की भक्ति को ही पर्याप्त समझा गया। अब तीर्थ यात्रा या शास्त्रों के प्रणयन की आवश्यकता नहीं रह गई। मोक्ष प्राप्त करने के लिए गृह त्याग की आवश्यकता नहीं थी। 

(7) निम्न जातियों का उत्थान—

भक्ति आन्दोलन ने जाति-पाँति का विरोध किया जिससे निम्न जातियों को उत्थान का अवसर प्राप्त हुआ। इनमें से कई ने प्रसिद्ध सन्तों के समान आदर प्राप्त किया। इससे हिन्दू समाज का सुधार हुआ।

 (8) क्षेत्रीय साहित्य का निर्माण—

सन्तों ने अपने पदों की रचना स्थानीय भाषा में की तथा इसी बोलचाल की भाषा में अपने उपदेश दिए। इससे मराठी, गुजराती, अवधी, पंजाबी आदि भाषाओं में भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ। भक्ति आन्दोलन का प्रभाव शासकों पर भी पड़ा था। बाबर ने इसकी सराहना की थी और अकबर ने इसे पुनः लागू करने का प्रयास किया था लेकिन समस्त गुणों के होते हुए भी भक्ति आन्दोलन हिन्दू और मुसलमानों के मध्य घनिष्ठ विश्वास तथा सम्बन्ध स्थापित करने में असफल रहा। 

Post a Comment

0 Comments