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Karnatak War me france ke patan ke karan ?

Carnetic War in Hindi ?

Karnatak War me france ke patan ke karan ? 



Karnatak War me france ke patan ke karan ?
Carnatic War in Hindi 


भारत में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष के क्या कारण थे(Carnetic War in Hindi)







कर्नाटक के युद्धों में अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की असफलता के कारणों का विवरण दीजिए।



(1) प्रस्तावना :-

व्यापार से आरम्भ होकर अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी कम्पनियाँ भारत की राजनीति में अपरिहार्य रूप से उलझ गईं। 17वीं-18वीं शताब्दी में अंग्रेज तथा फ्रांसीसी कटु शत्रु थे। ज्यों ही यूरोप में उनमें युद्ध आरम्भ होतासंसार के प्रत्येक कोने मेंजहाँ ये दो कम्पनियाँ कार्य करती थींआपसी युद्ध आरम्भ हो जाते थे। भारत में फ्रांसीसियों की असफलता के अनेक कारण थेकुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं या बन जाती हैं जो राष्ट्रों के भाग्य का निर्णय कर देती हैं। भारत में फ्रांस को भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जिन्हें

डूप्ले की महान् योजनाएँबुसी और सेण्ट लूबिन की कूटनीति तथा लैली का साहस एवं शौर्य भी प्रभावित नहीं कर सका और फ्रांसीसियों का भारत में राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने का स्वप्न टूट गया। फ्रांसीसियों ने एक समय में अपनी राजनीतिक विजयों से संसार को स्तब्ध कर दिया थापरन्तु अन्ततः वे हार गए।

 इस पराजय के कारण निम्नलिखित थे


(2) फ्रांसीसियों का यूरोप में उलझना-

उस समय फ्रांस यूरोप में अपनी प्राकृतिक सीमाओं को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था। यही नहींवह

अमेरिका में भी अपने साम्राज्य को स्थापित करना चाहता था। इस प्रकार फ्रांस ने अपनी शक्ति भारत के अतिरिक्त यूरोप और अमेरिका में भी लगा रखी थी। इनमें भारत की ओर उसका ध्यान सबसे कम था। फलस्वरूप फ्रांस की शक्ति केवल विभाजित ही नहीं हुई, वरन् वह भारत की फ्रांसीसी कम्पनी को पर्याप्त सहायता भो नहीं दे सका। यूरोप में भी उसके शत्रुओं की संख्या अधिक हो गई थी। इसी के परिणामस्वरूप फ्रांस न केवल भारत में ही असफल हुआअपितु औपनिवेशक विस्तार में भी वह अंग्रेजों का मुकाबला न कर सका।

(3) दोनों देशों की प्रशासनिक भिन्नताएँ- 

 फ्रांसीसी इतिहासकारों ने अपने देश की असफलता के लिए अपनी घटिया शासन प्रणाली को दोषी ठहराया है। लुई चौदहवें के काल में अनेक युद्धों के कारण फ्रांस की वित्तीय स्थिति बिगड़ गई थी। उसके उत्तराधिकारी लुई पन्द्रहवें ने और भी धन लुटाया। दूसरी ओर इंग्लैण्ड में एक जागरूक अल्पतन्त्र राज्य कर रहा था। अल्फ्रेड लयाल ने फ्रांस की असफलता के लिए फ्रांसीसी व्यवस्था के खोखलेपन को ही दोषी ठहराया है। उसके अनुसार डूप्ले की वापसीला-बोर्डाने तथा डआश की भूलेंलैली की अदम्यता आदि से कहीं अधिक लुई पन्द्रहवें की भ्रान्तिपूर्ण नीति तथा उसके अक्षम मन्त्री फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे।

(4) संगठन की दृष्टि से अंग्रेजों की श्रेष्ठता-

अंग्रेज कम्पनी एक स्वतन्त्र व्यापारिक कम्पनी थी। साधारण स्थिति में राज्य की ओर से उसके कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। इसके विपरीत फ्रांसीसी कम्पनी राज्य से सहायता प्राप्त कम्पनी थी और फ्रांस के राजा एवं मन्त्रियों का धन उस कम्पनी में लगा होने के कारण उस पर फ्रांस की राजनीति का प्रभाव पड़ता था। इस कारण फ्रांसीसी कम्पनी व्यापार की ओर ठीक प्रकार ध्यान नहीं देती थी और उसकी आर्थिक स्थिति सर्वदा खराब रहती थी।

(5) भारत में प्राप्त किए गए स्थानों की दृष्टि से अंग्रेजों की श्रेष्ठता- 

भारत में फ्रांसीसियों का मुख्य कार्यालय पॉण्डिचेरी में था तथा मसौलीपट्टमकारिकल, माहीसूरत तथा चन्द्रनगर में उनके उप-कार्यालय थे। दूसरी ओर अंग्रेजों की मुख्य बस्तियाँ मद्रासबम्बई और कलकत्ता में थी तथा अनेक उप-कार्यालय थे। पश्चिमी तट पर फ्रांसीसियों के पास बम्बई के मुकाबले कोई नगर नहीं था। जहाँ तक फ्रेंच मॉरीशस का प्रश्न हैउसके विषय में कहा गया है कि वह फ्रांसीसी नौसेना के लिए एक अच्छा स्थान थापरन्तु वह स्थान फ्रांसीसी स्थानों से दूर थाजिसके कारण वहाँ से समय पर सहायता नहीं मिल पाती थीबल्कि वह दुर्बल नौसेनापतियों के लिए शरण पाने का स्थान बन जाता थाजैसा कि डी-एचे के साथ हुआ। इस प्रकार स्थान की दृष्टि से भी अंग्रेज कम्पनी की स्थिति अच्छी थी।


(6) अंग्रेज कम्पनी की आर्थिक सम्पन्नता 

अंग्रेज कम्पनी का व्यापार और आर्थिक सम्पन्नता फ्रांसीसी कम्पनी की तुलना में प्रारम्भ से ही श्रेष्ठ थी। अंग्रेज यह कभी नहीं भूले थे कि वे व्यापारी हैंजबकि डूप्ले की प्रारम्भ से ही यह धारणा थी कि फ्रांसीसी व्यापार में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते और उनका मुख्य लक्ष्य भारत में राज्य प्राप्त करना होना चाहिए। इसी कारण अंग्रेज अपने युद्धों के व्यय का भार उठा सकेजबकि फ्रांसीसी अपने युद्धों के लिए कभी भी पर्याप्त धन एकत्रित नहीं कर सके। यह फ्रांसीसियों की सबसे बड़ी दुर्बलता थी। बंगाल की विजय के पश्चात् अंग्रेजों की स्थिति और अधिक अच्छी हो गई।

(7) अंग्रेजों की नौसेना की श्रेष्ठता-

कर्नाटक के युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कम्पनी के भाग्य का उदय अथवा अस्त नौसेना की शक्ति पर निर्भर था। 1746 ई. में फ्रांसीसी कम्पनी को पहले समुद्र मेंफिर थल पर विशिष्टता प्राप्त हुई। इसी प्रकार 1748-51 . तक जो भी सफलता डूप्ले को मिलीवह उस समय तक थी जब तक अंग्रेजी नौसेना निष्क्रिय थी। सप्तवर्षीय युद्ध के दिनों में वह पुनः सक्रिय हो गई। वॉल्टेयर के अनुसार ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध में फ्रांस की जल शक्ति का इतना ह्रास हुआ कि सप्तवर्षीय युद्ध के समय उसके पास एक भी जलपोत नहीं था। बड़े पिट (Pitt the Elder) ने इस श्रेष्ठता का पूर्ण लाभ उठाया। न केवल भारतीय व्यापार मार्ग खुले रहेबम्बई से कलकत्ता तक जलमार्गों द्वारा सेना का आवागमन अबाध रूप से चलता रहा। फ्रेंच सेना पूर्ण रूप से पृथक् रही। यदि शेष कारण बराबर भी होतेतो भी जल सेना की श्रेष्ठता फ्रांसीसियों को परास्त करने के लिए पर्याप्त थी। स्मिथ ने लिखा है, "पॉण्डिचेरी को आधार बनाकर एक ऐसी शक्ति से युद्ध मेंजिसके पास बंगाल और समुद्र की सत्ता थीसिकन्दर महान और नेपोलियन भी भारत में साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हो सकते हैं।"

(8) फ्रांसीसी अधिकारियों के पारस्परिक झगड़े-

बड़े-बड़े फ्रांसीसी अधिकारियों में कभी सामंजस्य नहीं रहा और निम्न फ्रांसीसी अधिकारी योग्य सिद्ध नहीं हुए। ला-बोर्डाने और डूप्ले में झगड़ा हुआडूप्ले और बुसी अच्छे मित्र होते हुए भी नीतिगत मतभेद रखते थे और काउण्ट डी-लैली ने अपने व्यवहार से सभी को असन्तुष्ट कर दिया था। बुसी से उसका मतभेद थाजबकि डी-एचे ने कभी उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों को जहाँ लॉरेंसफोर्डस्मिथ सदृश अनेक कुशल अधीनस्थ अधिकारी प्राप्त हुएफ्रांसीसियों को कभी भी नहीं मिलेस्वयं क्लाइव भी अधीनस्थ स्तर से ऊपर उठा था। इस कारण भी फ्रांसीसियों में दुर्बलता आयी थी।


(9) डूप्ले का उत्तरदायित्व- 

डूप्ले एक कुशल प्रशासक होते हुए भी फ्रांसीसियों की हार के लिए उत्तरदायी था। वह राजनीतिक षड्यन्त्रों में इतना उलझ गया था कि उसने इन झगड़ों के कुछ पक्षों की ओर ध्यान ही नहीं दिया। उसने कम्पनी के व्यापार तथा वित्तीय पक्षों की अवहेलना की। यह एक बहुत ही आश्चर्यपूर्ण बात है कि डूप्ले जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने यह समझा कि दक्षिण में अनुसरण की नई नीति राजनीतिक रूप से उचित है। 1751 . में मुजफ्फरजंग द्वारा डूप्ले को कृष्णा नदी के पार के मुगल क्षेत्रो का गवर्नर नियुक्त किए जाने को अंग्रेज सुगमता से स्वीकार नहीं कर सकते थे। दूसरे वह यह भी नहीं समझ पाया कि भारत में दोनों कम्पनियों का झगड़ा वास्तव में यूरोप और अमेरिका में दोनों राष्ट्रों के झगड़े का ही एक अंग है। इसके अतिरिक्त उसमें अत्यधिक आत्मविश्वास था। उसने पेरिस में अपने अफसरों को कुछ अति महत्त्वपूर्ण सैनिक तथा सामरिक दुर्बलताओं तथा कठिनाइयों के विषय में नहीं बतलाया और यदि उसे सामयिक सहायता नहीं मिलीतो केवल उसका अपना ही दोष था।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यूरोप में फ्रांस अंग्रेजों को नहीं हरा सका। अत: अंग्रेजों का मनोबल ऊँचा था। इसके अतिरिक्त भारत अंग्रेज-फ्रांसीसी औपनिवेशिक झगड़े के भिन्न युद्धस्थलों में से एक था तथा अंग्रेज उसमें निश्चय ही अधिक भाग्यशाली तथा सफल सिद्ध हुए।








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