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Daan kya hai? daan kee paribhasha (dhaara 122) संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 44: दान क्या है दान की परिभाषा (धारा 122)

 

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 44: दान क्या है दान की परिभाषा (धारा 122)




संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत जिस प्रकार विक्रय, पट्टा, विनिमय संपत्ति का अंतरण के माध्यम है इसी प्रकार संपत्ति के अंतरण का एक माध्यम दान भी होता है। दान के माध्यम से भी किसी संपत्ति का अंतरण किया जा सकता है। दान से संबंधित प्रावधान संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत यथेष्ठ रूप से दिए गए हैं। संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 122 दान संबंधित प्रावधानों को प्रस्तुत करती है। इस आलेख के अंतर्गत इसी धारा पर व्याख्या प्रस्तुत की जा रही तथा दान की परिभाषा पर प्रकाश डाला जा रहा है।

दान- किसी वर्तमान जंगम या स्थावर सम्पत्ति का वह अन्तरण है जो एक व्यक्ति द्वारा, जो दाता कहलाता है, दूसरे व्यक्ति को जो आदाता कहलाता है स्वेच्छया और बिना प्रतिफल के किया गया हो और आदाता द्वारा या उसकी ओर से प्रतिगृहीत किया गया हो। यह एक स्वैच्छिक एवं प्रतिफल रहित संव्यवहार है जो तत्समय जीवित दो व्यक्तियों के बीच पूर्ण होता है तथा आत्यन्तिक प्रकृति का होता है।


1)- आसन्न मरण दान- आसन्न मरण दान वह दान है जब दाता अपने आप को मरणासन्न जानकर अपनी सम्पत्ति का दान किसी अन्य जीवित व्यक्ति के पक्ष में कर देता है तथा जैसा कि अपेक्षित था, दाता की दान के पश्चात् मृत्यु हो जाए। मरणासन्न दान की निम्नलिखित शर्तें हैं- (1) दाता इस प्रकार की स्थिति में हो कि उसे मृत्यु आसन्न प्रतीत हो रही हो। (2) दाता की मृत्यु हो जाए उस स्थिति के फलस्वरूप। (3) दान तभी प्रभावी हो जब दाता की मृत्यु हो जाए।


(4) आदाता को दान सम्पत्ति का वास्तविक परिदान हो। आसन्न मरण दान का उल्लेख धारा 129 में किया गया है। 

2. वसीयत द्वारा दान- इस प्रकार के दान के सम्बन्ध में प्रावधान भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 में वर्णित है। एक जीवित व्यक्ति द्वारा दूसरे जीवित व्यक्ति के पक्ष में किया गया दान आत्यन्तिक प्रकृति का होता है तथा दाता के जीवनकाल में ही प्रभावी हो जाता है। इसके विपरीत दान दाता की मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होता है उसके जीवनकाल में नहीं। वसीयत की वैधता दाता की मृत्यु के समय उसको विधिक अन्तरणीय शक्ति पर निर्भर करता है। यदि वह तत्समय अन्तरित करने के लिए विधित प्राधिकृत था तो उसके द्वारा सृजित वसीयत वैध होगी।


वसीयत तथा दान में अन्तर- 

वसीयत को एक आवश्यक विशेषता है कि यह एक इच्छा या मंशा की मात्र उद्घोषणा मात्र होती है। जब तक कि वसीयतकर्ता जीवित रहता है। एक ऐसी उद्घीषणा जो प्रतिसंहृत की जा सकती है, वसीयतकर्ता को इच्छानुसार परिवर्तित को जा सकती है। यह एक ऐसा संव्यवहार है जो प्रवर्तनीय होने के लिए या परिपूर्ण होने के लिए या प्रभावी होने के लिए वसीयतकर्ता की मृत्यु की अपेक्षा करता है। अतः जब तक मृत्यु नहीं होती तब तक यह बिना किसी प्रभाव के होती है। इसके विपरीत दान सम्पत्ति में एक ऐसा अन्तरण है जो स्वैच्छिक होता है प्रतिफल रहित होता है तथा पर अदाता के पक्ष में सम्पत्ति में आत्यन्तिक हित अन्तरित करता है।

यदि वसीयतकर्ता ने प्रथम निष्पादक को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की थी सम्पत्ति को वसीयतकर्ता के जीवन काल में व्ययनित करने हेतु तत्पश्चात् वसीयतकर्ता की मृत्यु के उपरान्त अन्य व्यक्तियों के पक्ष में अधिकार का सृजन होगा तो ऐसा संव्यहार वसीयत होगा कि दान। जी० जी० वर्धीस एवं अन्य बनाम इस्साक जार्ज एवं अन्य के बाद में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने अभिप्रेक्षित किया था कि सीमान्त सन्देह के प्रकरणों में वैधता विधि की माँग होती है। उन्होंने अभिलिखित किया कि :- "यदि, जैसा कि मैंने संकोचवश कहा था कि, अन्तरण के प्रभावी शब्द हैं तो विलेख की प्रकृति को लेकर अतिरिक्त प्रश्न उठेगा विचारण न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया था कि यह दान का एक प्रकरण है, किन्तु अपील में अपीलीय न्यायालय ने इसे एक वसीयत माना। सम्पत्ति के व्ययन हेतु पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी, क्योंकि उसने अपने जीवनकाल में सम्पत्ति को प्रथम निष्पादक से संलग्न कर दिया गया था। कोई भी अन्य पक्षकार जिसे सम्पत्ति का लाभ मिलना था उसने दस्तावेज के निष्पादन में भागीदारी नहीं की थी और नहीं हित के निहित होने के सम्बन्ध में कोई शब्द अभिव्यक्त किया था। अतः यह विलेख वसीयत है न कि दान।" कोई दस्तावेज दान है या वसीयत, यह केवल दस्तावेज के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता है अपितु दस्तावेज को तैयार करने में प्रयुक्त किए गये शब्दों से निरूपित किए गये आशय पर निर्भर करता है। 

इस सन्दर्भ में साधारण परीक्षण यह है कि- 

(1) दस्तावेज का क्या नाम दिया गया है: 
(2) इसका रजिस्ट्रीकरण हुआ है या नहीं: 
(3) इसे प्रति संहरित करने की स्थिति (काल): 8
(4) वर्तमान या भावी प्रवर्तन की स्थिति (काल)।


इसमें केवल एक या दो परीक्षण स्वयं में पर्याप्त नहीं है। बहुलांश परीक्षणों को ध्यान में रखकर इस प्रश्न का निर्धारम किया जाता है। दस्तावेज अंशतः वसीयत एवं अंशतः दान हो सकेगा- दान एवं वसीयत के बीच प्रमुख परीक्षण यह है कि अन्तरण विलेख के निष्पादक के जीवनकाल में प्रभावी हो जाता है या उसकी मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होता है। यह भी सम्भव है कि विलेख अंशतः वर्तमान में प्रभावी होता हो अथवा भविष्य में वसीयत के रूप में अतः वसीयतकर्ता की मृत्यु तक यह केवल एक प्रदक्षिणा पथ की तरह है तथा वसीयत प्रतिसंहरणीय प्रकृति की है। वसीयत का किया जाना इसका प्रारम्भ मात्र है तथा वसीयतकर्ता की मृत्यु तक इसका कोई भी प्रभाव नहीं होता है।

इस प्रकार वसीयत के दो गुण- 
(1) यह वसीयतकर्ता की मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होने के लिए आशयित हो। 
(2) यह प्रतिसंहरणीय हो । 

यदि एक सम्पत्ति का शर्त रहित दान किया गया हो और इसके साथ ही साथ एक अन्य करार हुआ हो तो दोनों ही विलेख एक ही संव्यहार एवं शर्त के अंश माने जाएंगे, यदि कोई हो, जिसका उल्लेख विलेख में किया गया हो। वह पक्षकारों पर बाध्यकारी होगा। ठाकुर रघुनाथ बनाम रमेश चन्द्र के वाद में दाता ने कालेज के लिए भवन निर्माण हेतु एक भूमि का शर्त रहित रूप में दान किया। इसी के साथ-साथ एक पृथक करार किया गया जिसमें यह उपबन्धित था कि यदि कालेज भवन का निर्माण एक निर्धारित कालावधि में पूरा नहीं कर लिया जाता है तो यह समझा जाएगा कि दान विलेख समाप्त हो गया है तथा दाता दान में दी गयी सम्पत्ति का स्वामी समझा जाएगा। करार के आधार पर दाता के दावे को स्वीकार किया गया क्योंकि भवन का निर्माण निर्धारित कालावधि में पूर्ण नहीं हो सका था।

दान एवं स्वैच्छिक न्यास विभेद- 

इन दोनों संव्यवहारों में मात्र यह विभेद है कि दान के मामले में दान की विषयवस्तु हो आदाता के पास अन्तरित हो जाती है, चली जाती है, जबकि न्यास में वास्तविक लाभकारी हित लाभार्थी को प्राप्त होता है या साम्पिक स्वत्व लाभार्थी में निहित हो जाता है जबकि विधिक स्वत्व या हित एक तीसरे व्यक्ति के पास चला जाता है या स्वयं उस व्यक्ति के पास रह जाता है जो न्यास का सृजन करता है। दूसरे शब्दों में न्यास के मामले में तीन व्यक्तियों को आवश्यकता होती है अथवा कम से कम दो व्यक्तियों की जिसमें से एक व्यक्ति एक साथ दो अधिकार से युक्त होता है। इसके विपरीत दान में केवल दो ही व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। 

दान देने वाला एवं दान सम्पत्ति को ग्रहण करने वाला। जीवित व्यक्तियों के बीच दान के आवश्यक तत्व सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 122 केवल दो जीवित व्यक्तियों के बीच ही दान द्वारा सम्पत्ति के अन्तरण के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है।

इसके अनुसार दान के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं- 

(1) प्रतिफल की अनुपस्थिति। 
(2) पक्षकारदाता एवं आदाता। 
(3) दान को विषयवस्तु। 
(4) दाता द्वारा आदाता के पक्ष में सम्पत्ति का स्वैच्छिक अन्तरण। 
(5) आदाता द्वारा दान की स्वीकृति। 

(1) प्रतिफल की अनुपस्थिति कोई भी विधिक संविदा प्रतिफल के बगैर अप्रवर्तनीय मानी जाती है। दान का संव्यवहार भी एक प्रकार की संविदा है, किन्तु यह साधारण संविदा से भिन्न है। इसे प्रतिफल से रहित रखा गया है।


वस्तुतः यह स्वेच्छा से किया गया अन्तरण है जिसमें दूसरे पक्षकार की सम्पत्ति पहले से अभिव्यक्त नहीं होती है, अपितु दान की विषयवस्तु को स्वीकार करने से ही उसकी सम्मति प्राप्त होती है। स्वेच्छा से वस्तु का एक दूसरे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरण यह दान की प्रथम शर्त होती है। अतः यह आवश्यक है कि दाता सक्षम हो समर्थ हो दान के रूप में वस्तु का अन्तरण करने के लिए। "स्वेच्छा" से अभिप्राप्त है संविदा को शून्य करने वाले तत्वों जैसे कपट मिथ्याव्यपदेशन, प्रपोड़न इत्यादि का अभाव। यह संव्यवहार को वैधता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। दाता या अन्तरणकर्ता अपनी इच्छा, मर्जी से बिना किसी जोर या दबाव के दूसरे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरित करता है। इस संव्यवहार या संविदा को इसलिए प्रतिफल रहित माना गया है, क्योंकि अन्तरण द्वारा सम्पत्ति या वस्तु प्राप्त करने वाला व्यक्ति कोई प्रस्ताव इस आशय का नहीं करता है और न हो जा सम्पत्ति या वस्तु पाने की अपेक्षा रखता है। अन्तरक स्वयं यह निर्णय लेता है कि यह अपनी सम्पति या वस्तु किसे देगा, कब देगा और कैसे देगा। प्रतिफल क्या है? इसका स्वरूप क्या है? इसके न होने का क्या प्रभाव होता है? कब यह वैध या विधिसम्मत होता है और कब नहीं? इन तमाम प्रश्नों का निर्धारण संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (4) 23 एवं 25 के आधार पर किया जाता है। दान के माध्यम से सम्पत्ति अन्तरित करने को विधि द्वारा मान्यता देकर दाता अथवा अन्तरक के अधिकार को स्वीकृति प्रदान की गयी है कि वह एक अन्य रूप में भी अपने अधिकार का प्रयोग करने में समर्थ है। दान के संव्यवहार में दाता किसी भी प्राप्ति की इच्छा नहीं रखता है। उसका उद्देश्य मात्र आदाता का कुछ देना होता है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना समीचीन है कि दान उपदान सहित हो सकता है और वह वैध होगा, किन्तु यदि सप्रतिफल दान किया गया है, तो ऐसा दान शून्य होगा। उपलक्ष्य सहित दान एवं प्रतिफल दान दोनों ही पृथक्-पृथक् अवधारणाएँ हैं, परन्तु साधारण स्थिति में इनमें विभेद करना कठिन होता है। पर दोनों में अन्तर है। किसी करार में प्रतिफल न होने से संविदा शून्य हो जाएगी, परन्तु दान में प्रतिफल होने से दान का संव्यवहार शून्य हो जाएगा। परन्तु उपलक्ष्य का प्रभाव करार पर नहीं पड़ता है। उपलक्ष्य कैसा भी रहा हो संव्यहार का विधिक अस्तित्व अप्रभावित रहता है। दान दाता को उदारता का परिचायक होता है। दान के मामले में यहाँ प्रतिफल का अस्तित्व माना जाएगा जहाँ दाता के किसी दायित्व की पूर्ति हो रही हो। उदाहरणार्थ दाता के किसी ऋण का भुगतान या उसके किसी हित की सन्तुष्टि या उसे कोई लाभ दान एक ऐसा कृत्य है। या संव्यवहार है जिससे आदाता को लाभ प्राप्त होता है। दाता को केवल तभी लाभ प्राप्त होता है जबकि उसने अपना सब कुछ दान में अन्तरित कर दिया हो। ऐसी स्थिति में आदाता दान कर्ता से उसका सब कुछ प्राप्त कर लेता है एवं सर्वस्व आदाता कहलाता है।


दान बिना प्रतिफल के सम्पत्ति का अन्तरण है। यदि संव्यवहार में किसी भी प्रकार का प्रतिफल है तो संव्यवहार दान का संव्यवहार नहीं होगा। सम्पत्ति अन्तरण के बदले यदि यह वचन दिया गया हो कि अन्तरिती अन्तरक के ऋणों का भुगतान कर देगा तो यह वचन एक वैध एवं सारवान प्रतिफल होगा तथा संव्यवहार दान का संव्यवहार नहीं होगा। परन्तु नैसर्गिक स्नेह आध्यात्मिक या नैतिक लाभ इस धारा के अन्तर्गत प्रतिफल नहीं माना जाता है। क्योंकि प्रतिफल से सदैव आशय है मूल्यवान प्रतिफल, जो धन के रूप में हो या धन के रूप में जिसका मूल्यांकन हो सके। अतः आध्यात्मिक लाभ पाने के उद्देश्य से किया गया अतएव प्रतिफल के बदले अन्तरण नहीं होगा। अतः इस प्रकार के अन्तरण को दान माना जाएगा। इसी प्रकार अन्तरिती के पक्ष में भूमि का अन्तरण, इस कारण कि वह अन्तरक की बीमारी की स्थिति में उसकी सेवा करेगा इस उद्देश्य से किया गया अन्तरण दान के रूप में वैध होगा। यदि एक माँ अपनी सम्पत्ति अपनी एकलौती पुत्री के पक्ष में दान द्वारा अन्तरित करती है तथा पुत्री यह वचन देती है कि वह आजीवन अपनी माता की सेवा करेगी तो यह वचन प्रवर्तनीय नहीं होगा तथा संव्यवहार दान के रूप में वैध नहीं होगा, क्योंकि दान का अभिप्राय है दाता द्वारा आदाता के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण बिना किसी प्रतिफल के अथवा प्रतिफल की अपेक्षा के दान आत्मशान्ति हेतु नैसर्गिक प्यार स्नेह के कारण होता है। आदाता यदि चाहे तो सम्पत्ति प्राप्त करने के उपरान्त दाता के लिए कोई कार्य कर सकेगा। किन्तु यदि एक व्यक्ति ने अपनी सम्पत्ति का दान नगर महापालिका के पक्ष में कर दिया तो तथा नगर महापालिका ने अन्तरक को 100 रुपये प्रतिमास भरण-पोषण हेतु टोकन के रूप में देने का वचन दिया हो तो इस 100 रुपये प्रतिमास की रकम को प्रतिफल नहीं माना जाएगा तथा संव्यवहार दान के रूप में वैध होगा। यदि एक पति अपनी पत्नी के पक्ष में एक सम्पत्ति इसलिए अन्तरित करता है कि पत्नी उसे महर के भुगतान के रूप में स्वीकार करेगी, क्योंकि अदत्त महर एक ऋण के रूप में होता है, तो यह अन्तरण दान के रूप में वैध नहीं होगा यदि अतीत में प्रदत्त की गयी सेवा के एवज में एक दान विलेख निष्पादित किया जाता है, किन्तु वह भविष्य में प्रभावी होने को है तो ऐसे अन्तरण को प्रतिफल के एवज में किया गया नहीं माना जाएगा। पक्षकार सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत उल्लिखित अन्तरण के अन्य प्रकारों में जिस प्रकार दो पक्षकारों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार दान के मामले में भी दो पक्षकारों की आवश्यकता होती है। यह व्यक्ति जो सम्पत्ति अन्तरित करता है दाता कहलाता है तथा जिस व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित होती है आदाता कहलाता है।



ऐसा कोई भी व्यक्ति जो विधितः सक्षम हो संविदा करने के लिए अपनी सम्पत्ति दान के रूप में अन्तरित कर सकेगा। एक अवयस्क अर्थात् जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है, संविदा करने हेतु अर्ह नहीं माना जाता है। ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया दान वैध नहीं होगा। इसी प्रकार एक न्यासी जब तक कि न्यास की शर्तों के अन्तर्गत दान करने हेतु उसे प्राधिकृत न किया गया हो, न्यास सम्पत्ति, दान के रूप में अन्तरित नहीं कर सकेगा। वयस्क होने के साथ-साथ दाता का स्वस्थचित्त का होना भी आवश्यक है। वह किसी विवशता या अक्षमता का शिकार न हो जैसे दिवालिया न हो, दान में दी जाने वाली सम्पत्ति का स्वामी हो या सम्पत्ति के असली स्वामी द्वारा अन्तरण हेतु प्राधिकृत हो दान का दूसरा पक्षकार होता है आदाता अर्थात् वह व्यक्ति जिसके पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जाती है या वह व्यक्ति जिनके पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जाती है तथा जो उसे स्वीकार करता है या स्वीकार नहीं करता है या ज उसे स्वीकार करते हैं या स्वीकार नहीं करते हैं। यह आवश्यक है कि आदाता अभिनिश्चित व्यक्ति होने चाहिए। यदि वह या वे अभिनिश्चित नहीं है तो इस धारा के उपबन्ध ऐसे अन्तरण पर प्रभावी नहीं होंगे। दान के द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण नैसर्गिक जीवित व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में सम्पति का अन्तरण हो सकेगा या विधिक व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में हो सकेगा। अतः दान द्वारा सम्पति का अन्तरण एक मूर्ति के पक्ष में हो सकेगा, क्योंकि मूर्ति, हिन्दू विधि के अनुसार एक विधिक व्यक्ति है। वह सम्पत्ति धारण करने के लिए अर्ह मानी गयी है यद्यपि मूर्ति द्वारा सम्पत्ति का धारण किया जाना केवल एक आदर्श रूप में ही होता है। मूर्ति को भाँति मठ भी एक विधिक व्यक्ति है जो सम्पत्ति धारण करने के लिए अर्ह एवं सक्षम है। दान द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संयुक्त रूप में उत्तर जीवित के अधिकार के साथ किया जा सकेगा तथा अन्तरण वैध होगा। यदि कोई व्यक्ति अपनी ही सम्पत्ति अपने पक्ष में अन्य व्यक्तियों के लाभ हेतु अन्तरित करता है तो ऐसा संव्यवहार दान का संव्यवहार होगा। धर्म के पक्ष में दान द्वारा किया गया अन्तरण वैध नहीं होगा क्योंकि 'धर्म' शब्द अपने आप में संदिग्ध एवं अभिनिश्चित प्रकृति का है कि उसके पक्ष में दान को प्रभावी किया जाना न्यायालय के लिए सम्भव नहीं है। अतः 'धर्म' के पक्ष में 'दान' द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण वैध नहीं होगा। एक पवित्र हिन्दू साधारणतया अपनी सम्पत्ति किसी एक मूर्ति या प्रतिमा के पक्ष में अन्तरित कर देता है तथा उक्त सम्पत्ति के अपने सभी अधिकारों का परित्याग कर देता है। इसे मौखिक रूप में ही प्रभावी बनाया जा सकता है, किन्तु यदि इस आशय का कोई लिखित दस्तावेज है, तो इसका रजिस्ट्रीकरण आवश्यक होगा। एक धर्मदाय एक प्रतिमा, मूर्ति या मंदिर के पक्ष में विधित किया जा सकेगा तथा इसके लिए किसी विशिष्ट औपचारिकता या अनुष्ठान पर कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं होती है, पर यह आवश्यक है कि दाता ने इस निमित्त अपनी मंशा सुस्पष्ट कर दी हो। यदि सम्पत्ति का दान किसी प्रतिमा या मूर्ति के पक्ष में किया गया है तो यह साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं होती है कि दाता ने दान हेतु संकल्प एवं समर्पण किया था अथवा नहीं यदि एक सत्संगी ने धन, रकम का दान राधास्वामी दयाल, एक अविधिक व्यक्ति के पक्ष में किया था, तो दान सारवान रूप में आगरा सत्संगी, एक पंजीकृत सोसाइटी के लाभ हेतु माना जाएगा और इस आधार पर इसे वैध माना जाएगा क्योंकि यह एक मंदिर, प्रतिमा या मूर्ति के लाभ की प्रकृति का है जिस पर सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम प्रवर्तनीय नहीं है। यदि अ अपनी सम्पत्ति दान दिलेख द्वारा ब के पक्ष में, जिसे यह अपने दत्तक पुत्र रूप में प्रस्तुत करता है, निष्पादित करता है पर यह साबित नहीं हो पाता है कि दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया पूर्ण हुई थी तो ऐसा दान प्रभावी नहीं होगा। दान द्वारा सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए आदाता का वयस्क होना आवश्यक नहीं है। अवयस्क आदाता के एवज में उसके नैसर्गिक संरक्षक दान स्वीकार कर सकेंगे, किन्तु यदि दान दुर्भर प्रकृति का दान है तो दायित्व या प्रभार अवयस्क के विरुद्ध प्रवर्तनीय नहीं होंगे उसको अवयस्कता के दौरान।







दान की परिभाषा:

दान, जिसे हस्तांतरण भी कहा जाता है, एक प्रॉपर्टी को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को स्वामित्व में स्थानांतरित करने का क्रियात्मक प्रक्रिया है। यह विशिष्ट विधियों और नियमों के अनुसार होना चाहिए ताकि संपत्ति का स्थानांतरण वैध माना जा सके।


वैध दान के आवश्यक तत्व:


1. उपहारी और दाता का अधिकार:

   - दान में, उपहारी (दाता) को पूर्ण और अन्तिम स्वामित्व अधिकार होना चाहिए। यह उसका अधिकार है कि वह प्रॉपर्टी को किसी दूसरे व्यक्ति को स्थानांतरित करने का निर्णय लेता है।


2. अस्तित्व और स्वामित्व:

   - स्थानांतरित होने वाली प्रॉपर्टी का अस्तित्व और स्वामित्व होना चाहिए। यदि किसी प्रॉपर्टी पर कोई अन्यायपूर्ण अधिकार है, तो उस प्रॉपर्टी का दान वैध नहीं हो सकता।


3. स्थानांतरण का इरादा:

   - दान करने वाले का पूर्व-निर्णय होना चाहिए कि उपहारी व्यक्ति ने प्रॉपर्टी को दूसरे व्यक्ति को स्वामित्व में स्थानांतरित करने का निर्णय किया है।


4. एकमौका और स्वीकृति:

   - दान पूर्ण होने के लिए, एकमौका और दूसरे व्यक्ति की स्वीकृति की आवश्यकता है। इसमें उपहारी व्यक्ति द्वारा उपहार स्वीकृति प्रदान करना चाहिए।


5. वैध संपत्ति:

   - दान की जा रही प्रॉपर्टी कोनसी भी संपत्ति हो, उसे वैधता का होना चाहिए। यानी किसी प्रॉपर्टी पर किसी प्रकार का कोई अवैध हक नहीं होना चाहिए।


इस प्रकार, भारतीय संपत्ति कानून द्वारा निर्धारित आवश्यक तत्वों का पालन करते हुए दान करना महत्वपूर्ण है ताकि संपत्ति का स्थानांतरण सही और वैध हो सके।







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