हज़रत मुहम्मद के विषय में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में लिखिए। (What do you know about Hajrat Mohammad? Write in brief.)
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इस्लाम के उत्कर्ष में हज़रत मुहम्मद के योगदान की विवेचना कीजिए। (Discuss the contribution of Hajrat Mohammad in rise of Islam.)
अरब देश कहाँ है? अरब देश के बारे में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में लिखिए।
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संक्षिप्त नोट लिखिए—‘बद्र की लड़ाई’, ‘उहद की लड़ाई’, ‘खंदक की लड़ाई’, ‘मक्का पर आक्रमण’।
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इस्लामी शिक्षाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
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हज़रत मुहम्मद के बाद इस्लाम की स्थिति की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
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अरबों द्वारा विज्ञान व संस्कृति के क्षेत्र में की गई उन्नति की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
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The Rise Of Islam in Hindi | हज़रत मुहम्मद साहब | इस्लाम का उदय |
The Rise Of Islam in Hindi (In Devnagri Script) इस्लाम का उत्कर्ष
सर वुल्जले हेग ने ठीक ही कहा है कि इस्लाम का उदय इतिहास के चमत्कारों में से एक है। सन् 622 ई. में एक पैगम्बर ने मक्का छोड़कर मदीना की शरण ली। एक शताब्दी बाद उस शरणागत के उत्तराधिकारी और अनुयायी एक ऐसे साम्राज्य पर शासन करने लगे जिसका विस्तार प्रशान्त महासागर से सिन्धु तक और कैस्पियन से नील तक था। यह सब कुछ कैसे हुआ आश्चर्यजनक तो है ही किन्तु एक शिक्षाप्रद कहानी भी है।
कहाँ है अरब देश? (Where is Arab Country?)
इस्लाम की भूमि अरब, एशिया महाद्वीप के दक्षिण और पश्चिम दिशा में स्थित है। इसके पश्चिम में मिस्र, उत्तर में सीरिया और इराक तथा पूरब से कुछ दूरी पर ईरान है। यह तीनों ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। इसके पूरब में फारस की खाड़ी, दक्षिण में हिन्द महासागर और पश्चिम में लाल सागर है। अरब निवासी इसे ‘जजिसत-अल-अरब’ कहते हैं।
इस शब्द का अर्थ है—अरब प्रायद्वीप। अरब प्रायद्वीप की जलवायु बहुत गर्म है तथा जनसंख्या विरल है। अधिकांश अरब प्रायद्वीप वेजर, वनस्पति रहित तथा दुर्गम है। भूमि के अनुपजाऊ होने के कारण यहाँ अधिकांश जनसंख्या समुद्र के किनारे अथवा वर्षा वाले स्थानों में निवास करती है। यहाँ अदन के अलावा कोई बढ़िया बन्दरगाह तथा हजर के अलावा कोई नदी नहीं है। इस प्रायद्वीप का दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र उपजाऊ है। यहाँ जनसंख्या भी सघन है। मक्का यहाँ का मुख्य कारवाँ नगर है तथा यहाँ कुरैश कबीले की प्रधानता है। मुसलमानों का पवित्र स्थान ‘काबा’ भी यहीं स्थित है। अरब प्रायद्वीप की सबसे बढ़िया फसल खजूर है। अरब अर्थव्यवस्था में ऊँट का मुख्य स्थान है। अरब प्रायद्वीप में हरियाली देखने को नहीं मिलती। यहाँ सूखे पठार तथा रेतीले मैदानों की भरमार है। यहाँ के लोग स्मेटिक जाति से सम्बन्ध रखते हैं। ये लोग अधिकतर खानाबदोशों जैसा जीवन व्यतीत करते थे जिन्हें बद्दू कहा जाता था। ये लोग असभ्य थे तथा अपना भोजन जानवरों को मारकर तथा शिकार करके प्राप्त करते थे। इनमें
बहुपति प्रथा, शराबखोरी, जुआ खेलना, लड़कियों को जिन्दा दफनाना, अनेक देवी-देवताओं की पूजा करना तथा जादू-टोने में विश्वास करने जैसी कुप्रथाएँ प्रचलित थीं।
तेज ऊँट और खूबसूरत घोड़े इनके आठों पहर के साथी थे और अद्भुत शक्ति वाला गधा भी अरब जगत् में एक कीमती चीज और वफादार दोस्त समझा जाता था।
हज़रत मुहम्मद स.अ.व. (Hazrat Muhammad S.A.W )
इस्लाम धर्म के अंतिम नबी (संदेशवाहक) हज़रत साहब का जन्म सन् 570 ई. में मक्का में प्रमुख कुरैश कबीले में हुआ था। इनके पिता अब्दुल्ला इनके जन्म से पूर्व ही स्वर्ग सिधार गए थे तथा इनकी माता अमीना भी इन्हें बचपन में ही छोड़कर चल बसी थीं। उस समय इनकी उम्र मात्र छः वर्ष की थी। फलस्वरूप उनका लालन-पालन उनके चाचा अबू तालिब ने किया। आपका बचपन का नाम अल-अमीन था। कुरान में उन्हें मुहम्मद और अहमद के नाम से पुकारा जाता है। बचपन से ही मुहम्मद अपनी एकाग्रता तथा सत्यवादिता के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें अपने व्यापारी चाचा अबू तालिब के साथ दूर-दराज के क्षेत्रों में जाना पड़ता था। इन यात्राओं के फलस्वरूप मुहम्मद को भी व्यापार का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया था। 25 वर्ष की आयु में आपका सम्पर्क खदीजा नाम की एक विधवा महिला से हुआ। वह एक धनवान महिला थी तथा व्यापार और ऊँटों के कारवाँ का व्यवसाय करती थी। वह मुहम्मद साहब के गुणों से बहुत अधिक प्रभावित हुई तथा उसने 40 वर्ष की अवस्था में मुहम्मद साहब से विवाह कर लिया।
मुहम्मद साहब की आयु उस समय 25 वर्ष थी। मुहम्मद साहब के कई लड़के हुए जो मृत्यु का शिकार हो गए। उनकी एक बेटी फातिमा थी जिसकी शादी मुहम्मद साहब के भतीजे अली के साथ हुई। यही अली इस्लाम के चौथे खलीफ़ा बने। फातिमा को ‘अज-जोहरा’ (खूबसूरत) कहा जाता था। सुख-समृद्धि मुहम्मद के जीवन को परिवर्तित न कर सके। फलस्वरूप उन्होंने अपने आपको समाज के निम्नतम वर्ग (दलित वर्ग) के लिए समर्पित कर दिया।
(1) पैगम्बर बनना—
वह प्रायः अपने समाज में आई बुराइयों से विचलित होकर मक्का पहाड़ की ‘हीरा’ नामक एक गुफा में बैठकर ध्यान व एकान्तवास करते थे। एक दिन जब वे चिन्तन कर रहे थे तो अर्द्ध-रात्रि को एक आवाज सुनाई दी, जो उन्हें कह रही थी—“तुम अपने अल्लाह जिसने तुम्हें पैदा किया है, के नाम पर पढ़ो आदि” इस पर हज़रत मुहम्मद बोले—मैं यह सब कैसे कर सकूँगा” क्योंकि वे पढ़े-लिखे नहीं थे। यह सुनकर आवाज ने दोबारा कहा—“पढ़ो क्योंकि तुम्हारा अल्लाह अत्यधिक उदार है, जो तुम्हें कलम से पढ़ाता है और आदमी को वह सिखाता है जो आदमी को नहीं मालूम।” यह पहली आकाशवाणी थी। इस रात को ‘लयलत-अल-कद्र’ अर्थात् शक्ति की रात कहा जाता है। यह रात रमज़ान महीने के अन्त में पड़ती है। कुछ समय पश्चात् उन्हें वह आवाज दोबारा सुनाई दी। मुहम्मद साहब बुरी तरह से डर गए और वे घर की तरफ भागे। उन्होंने फिर आवाज सुनी। यह आवाज देवदूत जिबरील की थी। मुहम्मद साहब ने सोचा कि अल्लाह ने उसकी रूह (आत्मा) से कहा है कि वह उठकर जनता को नए उपदेश दे। इस्लामी परम्परा के अनुसार जिस समय उन्हें ‘खुदायी इलहाम’ (ज्ञान) प्राप्त हुआ उस समय उनकी आयु 40 वर्ष की थी। मुहम्मद साहब को मिले इन निर्देशों को बाद में ‘कुरान’ नामक पवित्र पुस्तक में संग्रहीत किया गया। मुसलमानों की यह पवित्र पुस्तक 114 अध्यायों में बँटी हुई है। अरबी भाषा में लिखी गई इस पवित्र पुस्तक में 6,360 पद्य हैं।
(2) इस्लाम का विरोध—
हज़रत मुहम्मद के प्राथमिक अनुयायियों में उनकी पत्नी खदीजा, भतीजा अली तथा अबूबकर थे। शीघ्र ही उनके अनुयायियों की संख्या बढ़कर 50 हो गई। किन्तु मक्का में रहते हुए जैसे-जैसे मुहम्मद साहब प्रचलित बुराइयों के विरुद्ध अधिक उग्र होते गए कुरैशों में उनका विरोध बढ़ता गया। मक्का में उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता, प्रभावशाली व सम्पन्न लोगों की आँखों में खटकने लगी। इस्लाम में मूर्ति पूजा का विरोध किया जाता है जबकि मक्का के काबा पर प्रति वर्ष लाखों की संख्या में तीर्थ-यात्री आते थे, जिससे भारी मात्रा में आय होती थी। कुरैश लोग नहीं चाहते थे कि उनकी आमदनी समाप्त हो जाए। मुहम्मद साहब अपने उपदेशों से सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति ला रहे थे, जिसे पुराने रूढ़िवादी लोग घृणा की दृष्टि से देखते थे। कुरैश में रहने वाले पुरोहितों ने सोचा कि यदि इस्लाम इसी प्रकार निरन्तर प्रगति करता रहा तो उनका कार्य समाप्त हो जाएगा। अतः उन्होंने कुरैश जनता को भड़काना शुरू कर दिया। इस प्रकार मूर्ति पूजक इस्लाम के कट्टर विरोधी बन गए। लोगों ने मुहम्मद साहब पर हिंसात्मक प्रहार करने आरम्भ कर दिए। उन्हें पत्थर मारने के साथ-साथ अन्य कठोर यातानाएँ भी दी जाने लगीं।
(3) मुहम्मद साहब का तैफ पहुँचना—
मुहम्मद साहब के विरोध के साथ-साथ उनके अनुयायियों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। किन्तु अचानक उन पर भारी संकट आ पड़ा। सन् 619 ई. में उनकी पत्नी तथा उनके चाचा अबू तालिब की मृत्यु हो गई। उनके कबीले का नया शेख उनका भाई भी उनका कट्टर विरोधी था। अतः मुहम्मद साहब को मिलने वाली यातनाओं में कोई कमी नहीं आई। कुरैश लोगों ने उन्हें जान से मार डालने तक की योजना बना ली। उनको मक्का में रहना कठिन हो गया। फलस्वरूप उन्होंने अपने अनुयायियों सहित तैफ जाने का निर्णय लिया। किन्तु यहाँ उनका और अधिक विरोध हुआ। निराश होकर वे मक्का लौट आए। मक्का में उन्हें मदीना आने का निमन्त्रण मिला जो उन्होंने स्वीकार कर लिया।
(4) मुहम्मद साहब मदीना में—
मदीना के लोगों के निमन्त्रण पर अपने 200 अनुयायियों के साथ लुकते-छिपते मुहम्मद साहब मदीना पहुँचे। 2 जुलाई, सन् 622 ई. को वे मदीना पहुँच गए। इस्लामी ग्रन्थों में इस तिथि को ‘हिज्र’ ‘हज़रत मुहम्मद का स्थानान्तरण’ कहा जाता है। इसी दिन से ‘मुस्लिम कलैण्डर’ का आरम्भ होता है।
(5) बद्र की लड़ाई—
मदीना पहुँचकर मुहम्मद साहब ने धर्म के साथ-साथ राजनीति में भी रुचि लेनी आरम्भ कर दी। उन्होंने यहाँ एक सुगठित राज्य की स्थापना कर ली। अब वे धर्म प्रचारक के साथ-साथ मदीना के राजा भी बन गए। उनकी सफलताओं के फलस्वरूप कुरैश लोग उनसे जलने लगे। कुरैशों के साथ-साथ कुछ मदीनावासी भी उनसे द्वेष रखते थे। इन दोनों पक्षों ने मिलकर मुहम्मद साहब को मदीना से निकालने का निश्चय कर लिया। फलस्वरूप मुहम्मद साहब तथा कुरैशों के बीच सन् 623 ई. में संघर्ष हुआ। कुरैशों के नेता अबू-सूफ़यान के पास 900 सैनिक थे जबकि मुहम्मद साहब की सेना इससे 1/3 थी। युद्ध का निर्णय मुहम्मद साहब के पक्ष में हुआ। उनके मात्र 14 सैनिक शहीद हुए जबकि शत्रु पक्ष के 50 सैनिक मारे गए तथा 50 बन्दी बना लिए गए। बद्र के युद्ध से मुहम्मद साहब को अबुल फन की सम्पत्ति मिली। इस सम्पत्ति के 1/5 भाग को अपने पास रखकर मुहम्मद साहब ने शेष धन अपने सैनिकों में बाँट दिया। बद्र की लड़ाई इस्लाम के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। यह मुहम्मद साहब की पहली निर्णायक विजय थी। कुरैशों के साथ-साथ यहूदियों ने हज़रत मुहम्मद की शक्ति का लोहा मान लिया।
(6) उहद की लड़ाई—
बद्र की अपमानजनक हार को कुरैश लोग भुला नहीं सके। वे युद्ध की दोबारा तैयारी करने लगे। 12 महीने पश्चात् ही उन्होंने अबू सूफ़यान के नेतृत्व में सन् 625 ई. में दोबारा आक्रमण कर दिया। कुरैश और हज़रत मुहम्मद की मुठभेड़ उहद नामक स्थान पर हुई। इस युद्ध में हज़रत मुहम्मद बुरी तरह घायल हो गए। मक्का की घुड़सवार सेना ने हज़रत मुहम्मद की सेनाओं को पराजित कर दिया किन्तु यह पराजय भी इस्लाम की बढ़ती हुई प्रगति को नहीं रोक सकी। इस युद्ध में भी बद्र की भाँति अन्तिम विजय मुहम्मद साहब की ही हुई। उन्होंने यहूदी जाति के एक वर्ग को भी मदीना से निकाल दिया। अब इस्लाम का धर्म के साथ-साथ राजनीति पर भी आधिपत्य हो गया तथा यह विश्वव्यापी धर्म अब एक लड़ाकू राजतन्त्र बन गया।
(7) खंदक की लड़ाई—
उहद की लड़ाई में पराजित होने के पश्चात् कुरैशों ने यहूदियों तथा बछुओं की सहायता की । वे (कुरैश) मुहम्मद साहब की लोकप्रियता को अपनी सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक समृद्धि के लिए खतरा समझते थे । उन्होंने मदीना पर फिर आक्रमण करने का निर्णय लिया। इतिहास में इस संगठन को ‘अहजब’ कहा जाता है। सन् 627 ई. में खंदक के स्थान पर दोनों ओर की सेनाओं में मुठभेड़ हुई। शत्रु के आक्रमण से नगर को सुरक्षित रखने के लिए हज़रत मुहम्मद ने नगर के चारों ओर खाई खुदवा दी। खाइयों की वजह से ही शत्रु पक्ष के 600 घुड़सवार अप्रभावी हो गए। जिससे शत्रु की सेना में खलबली मच गई। इस युद्ध में मक्का निवासी बुरी तरह से प्रभावित हुए। 600 यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा शेष को देश निकाला दे दिया गया। इस लड़ाई से मिली विजय के परिणामस्वरूप ही हज़रत मुहम्मद एक साम्राज्य गठित करने में सफल हुए। इस्लाम के विरोधी अब लगभग समाप्त हो गए थे।
(8) मक्का पर आक्रमण—
मार्च, सन् 628 ई. में हज़रत मुहम्मद ने मक्का पर आक्रमण करने का निश्चय किया। वे अपने 1400 अनुयायियों सहित मक्का पहुँचे तथा वहाँ के लोगों को हुदेबिया नामक स्थान पर समझौता करने को बाध्य कर दिया। सन् 630 ई. में हज़रत मुहम्मद 10,000 मुसलमानों के साथ मक्का पर आक्रमण करने के लिए चल दिए। मक्का में केवल मुट्ठी भर लोगों ने ही उनका विरोध किया। वे मक्का पर अधिकार करने में सफल हो गए। इसके बाद हज़रत मुहम्मद काबा नामक स्थान पर गए। उन्होंने काबा के सात चक्कर लगाए तथा वहाँ स्थित 660 मूर्तियों को तोड़ डाला और कहा कि, “सत्य का दीपक जल उठा है, असत्य का कुहासा खत्म हो गया है।” इस प्रकार उन्होंने मक्का में मूर्ति पूजा को समाप्त कर दिया और लोगों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। मक्का में उन्होंने एकेश्वरवाद की स्थापना की। 8 जून, सन् 632 ई. को मुहम्मद साहब की मृत्यु हो गई।
इस्लामी शिक्षाएँ (Islami Teachings) हज़रत मुहम्मद ने अपने अनुयायियों (मुसलमानों) को पाँच कर्त्तव्यों का पालन करने का आदेश दिया जो इस्लाम धर्म के पाँच मूल सिद्धान्त बन गए। ये सिद्धान्त थे—
(1) ‘कलमा’ (जिसमें कहा गया कि सर्वोच्च अल्लाह एवं पैगम्बर में दृढ़ विश्वास होना चाहिए) का उच्चारण करना,
(2) नमाज़ अर्थात् दिन में पाँच बार प्रार्थना करना,
(3) ‘ज़कात’ अर्थात् अपनी आय का 2½ % भाग दान देना,
(4) ‘रमज़ान’ अर्थात् वर्ष में कुछ निश्चित दिनों में रोज़े (व्रत या उपवास) रखना,
(5) ‘हज’ अर्थात् मक्का की यात्रा करना। हज़रत मुहम्मद ने भ्रातृत्व के सिद्धान्त का प्रचार किया। वे सभी मनुष्यों को बिना किसी भेदभाव के एक समान समझते थे। उन्होंने नैतिकता एवं मानव जाति की सेवा पर बल दिया और मूर्ति पूजा का जोरदार शब्दों में खण्डन किया। वे कर्म-सिद्धान्त को भी मानते थे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य के कर्मों के अनुसार ही उसके भविष्य का जीवन निर्धारित होता है और उसे ‘जन्नत’ (स्वर्ग) अथवा ‘दोज़ख’ (नर्क) की प्राप्ति होती है। इस्लाम केवल एक अल्लाह में विश्वास रखता है। इस प्रकार एकेश्वरवाद इस्लाम का मूल मन्त्र है। इस्लाम के मानने वालों को अल्लाह के रसूल या पैगम्बर में ही अटूट विश्वास रखना चाहिए। मुसलमानों का पवित्र ग्रन्थ या पुस्तक कुरान है। मुसलमानों को इस पुस्तक की शिक्षाओं का अनुसरण करना चाहिए।
हज़रत मुहम्मद के बाद इस्लाम (Islam After Hazrat Muhammad)
हज़रत मुहम्मद के बाद विभिन्न खलीफ़ाओं ने इस्लाम की गति को आगे बढ़ाया। प्रमुख खलीफ़ा निम्नलिखित थे—
(1) अबू बकर—
सन् 632 ई. में हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों में मतभेद पैदा हो गए। अधिकांश मुसलमानों का विश्वास था कि हज़रत मुहम्मद ने कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था। अतः उन्होंने अबूबकर (सन् 632-634 ई.) को अपना नया खलीफ़ा (धर्म प्रमुख) चुन लिया। अबू बकर के काल में मुसलमानों ने सीरिया तथा इराक को जीत लिया।
(2) उमर—
अबू बकर ने उमर को (सन् 634-644 ई.) अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। प्रतिभा सम्पन्न उमर ने मिस्र, ईरान तथा त्रिपोली पर अपना आधिपत्य जमाया। किन्तु सन् 644 ई. में उमर की हत्या कर दी गई। उसकी हत्या ऐसे समय की गई जब उसका (उमर का) सितारा आसमान की ऊँचाइयों को छू रहा था। वास्तव में उमर का शासन काल इस्लाम के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा। उमर को मुस्लिम साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
(3) उसमान—
उमर के बाद उसमान (सन् 644-656 ई.) नया खलीफ़ा बना। वह पहला खलीफ़ा था जिसने धन एकत्रित किया। वह गवर्नरों द्वारा भेजे गए उपहार भी स्वीकार करता था। उसके विरुद्ध भाई-भतीजावाद के आरोप भी खुले आम लगाए गए। उसके बदनाम प्रशासन के विरुद्ध भड़के असन्तोष के चलते उसकी हत्या कर दी गई।
(4) अली—
उसमान के बाद हज़रत मुहम्मद के दामाद अली (सन् 656-661 ई.) को चौथा खलीफ़ा चुना गया। अली की हत्या कर दी गई। इसके बाद सीरिया का सूबेदार मुआबिया नया खलीफ़ा बना। उसके समय से खलीफ़ा बनना उमैयद वंश की पैतृक परम्परा बन गई। आगामी 90 वर्षों तक खलीफ़ा का पद उमैयद वंश में ही रहा। सन् 749 ई. में हज़रत मुहम्मद के चाचा अब्बास के वंशजों ने उमैयदों से खलीफ़ा पद छीन लिया। सन् 749 से 1258 ई. तक यह पद अब्बासियों के हाथों में रहा। अब्बासियों ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। जनवरी, सन् 1258 ई. में अन्तिम अब्बासी खलीफ़ा की चंगेज खाँ के पोते हलाकू नामक मंगोल ने हत्या कर दी। उमैयद वंश के खलीफ़ा सुन्नी मुसलमान थे जबकि अब्बासी खलीफ़ा शिया मतावलम्बी थे।
(5) अरब विज्ञान एवं संस्कृति का उत्कर्ष—
प्रारम्भिक मध्यकालीन एशिया की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना उच्चतम अरब विज्ञान एवं संस्कृति का उत्कर्ष था। अरब के परस्पर विरोधी कबीलों ने इस्लाम के उदय के फलस्वरूप एकजुट होकर शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की। आरम्भिक खलीफ़ाओं ने जिस अरब साम्राज्य की स्थापना की थी, उसमें अरब के अतिरिक्त सीरिया, इराक, ईरान, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन भी शामिल थे। कबीलों के आपसी झगड़ों और गृहयुद्ध के कारण आठवीं शताब्दी के मध्य में अब्बासियों ने बगदाद में खलीफ़ा के रूप में अपनी शक्ति स्थापित की। अब्बासी अपने आपको पैगम्बर मुहम्मद के खानदान का मानते थे और इसी वजह से वह पवित्र समझे जाते थे। लगभग 150 वर्षों तक अब्बासी साम्राज्य अपनी उन्नति के शिखर पर था। इसका प्रथम कारण यह था कि इस काल में उस क्षेत्र के सभी प्रमुख केन्द्र उसके अधीन थे। इन क्षेत्रों में उत्तरी अफ्रीका, मिस्र, सीरिया, ईरान और इराक आदि शामिल थे। इसका दूसरा कारण यह था कि अब्बासियों का अधिकार न केवल पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के उपजाऊ प्रदेशों पर था, वरन् भू-मध्य सागरीय देशों और भारत तथा चीन को जोड़ने वाले महत्वपूर्ण मार्गों पर भी था। अब्बासी इन मार्गों को सुरक्षा देते थे, जिससे उस क्षेत्र की समृद्धि बढ़ी तथा अब्बासी दरबार का गौरव और वैभव बढ़ गया। इसका तीसरा कारण था अरबों का उत्साही व्यापारी होना। ये लोग उत्साही व्यापारी थे और इन्होंने समृद्धशाली व्यापार स्थापित किया। इसके परिणामस्वरूप निजी और सार्वजनिक भवनों के साथ-साथ बहुत से नगरों का भी उदय हुआ। विश्व का शायद ही ऐसा कोई देश होगा जो रहन-सहन के स्तर और सांस्कृतिक वातावरण में अरबी नगरों की तुलना कर सकता हो। ‘नामून’ और ‘हासन-क्त-रशीद’ इस काल के अत्यन्त ही प्रसिद्ध खलीफ़ा थे। उनके दरबार एवं राजभवनों के वैभव और विद्वानों के संरक्षण सम्बन्धी बहुत-सी कथाएँ एवं किवदन्तियाँ प्रचलित हो गई थीं।
(क) साम्राज्य का विस्तार—
आरम्भिक काल में अरबों ने जिन प्राचीन सभ्यता वाले क्षेत्रों को जीता, उनके वैज्ञानिक ज्ञान एवं प्रशासनिक विशेषताओं को भी उन्होंने अपना लिया। इन खलीफ़ाओं ने अपने प्रशासन में ईसाई, यहूदी, ईरानी, पारसी तथा बौद्धों को भी निःसंकोच स्थान दिया। यद्यपि खलीफ़ा कट्टर मुसलमान थे, किन्तु उन्होंने ज्ञान के लिए अपने द्वार खुले रखे थे। खलीफ़ा अल-मानून ने यूनान, बैजन्टाईन, मिस्र, ईरान और भारत जैसी विविध सभ्यताओं के ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवादित करने के लिए बगदाद में एक ‘बेतुलहिकमत’ (ज्ञान का घर) बनवाया। इसके परिणामस्वरूप विश्व की लगभग सभी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक रचनाएँ अरबी भाषा में उपलब्ध हो गईं। अरबी दुनिया पर चीनी विज्ञान और दर्शन का भी प्रभाव पड़ा।
(ख) सिन्ध-विजय—
आठवीं शताब्दी में अरबों ने सिन्ध को जीत लिया, किन्तु इससे अरबों व भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सांस्कृतिक सम्बन्धों के विषय में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। भारत की विशेष देन, दशमलव-पद्धति, जो कि एक आधुनिक गणित का आधार है, इसी काल में अरबी दुनिया में पहुँची। बारहवीं शताब्दी में ‘अवेलार्ड’ नामक भिक्षु ने इससे यूरोपवासियों को परिचित कराया। ज्योतिष-विद्या और गणित से सम्बन्धित अनेक भारतीय रचनाओं का भी अरबी भाषा में अनुवाद कराया गया। इसमें आर्यभट्ट की प्रसिद्ध पुस्तक ‘सौर सिद्धान्त’ भी शामिल थी। ‘पंचतन्त्र’ जैसी अनेक संस्कृत की पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। भारतीय चिकित्सा-शास्त्री तथा हस्तकला विशेषज्ञों का बगदाद में स्वागत किया जाता था।
(ग) वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अरबों की उपलब्धि—
आठवीं शताब्दी में ही विशाल अरब साम्राज्य की स्थापना हो गई थी। अरब शासक बहुत उदार और बुद्धिमान थे। उन्होंने जिन प्राचीन सभ्यता वाले क्षेत्रों को जीता था, उनकी वैज्ञानिक जानकारी को भी अपना लिया था। आठवीं से दसवीं शताब्दी के आरम्भ में अरबों ने यूनान, बैजन्टाईन, मिस्र, ईरान और भारत जैसी विविध सभ्यताओं के ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने के लिए बगदाद में एक विभाग की स्थापना की। जिसे ‘बेतुलहिकमत’ (ज्ञान का घर) कहा जाता था। इस तरह अनेक महत्वपूर्ण रचनाएँ अरबी भाषा में उपलब्ध हो गईं। अरबों ने एशियाई तथा अन्य देशों के ज्ञान को अपनाकर उसका प्रसार किया। अरबों के प्रयत्नों से दिशा-सूचक यन्त्र, कागज छपाई की कला, बारूद, साधारण पहिएदार गाड़ी और लोहे की रकाब जैसे आविष्कार अरब से यूरोप पहुँचे। अरबों ने भारत से दशमलव-पद्धति, ज्योतिष, गणित, चिकित्सा आदि की जानकारी प्राप्त कर उसका प्रसार किया।
दसवीं शताब्दी में अरबों ने स्वयं भी वैज्ञानिक विषयों में योगदान दिया। इस काल में रेखागणित, बीजगणित, भूगोल, ज्योतिष-शास्त्र, विज्ञान, रसायन-शास्त्र तथा चिकित्सा आदि के विकास ने अरबों को विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया था। लेकिन यह प्रगति खुरासान, मिस्र, स्पेन आदि अरब से बाहर के देशों द्वारा की गई थी। अरबों ने सबसे समृद्ध पुस्तकालयों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना की थी। विस्तृत साम्राज्य होने के कारण अरब का विज्ञान अन्तर्राष्ट्रीय बन गया था। अरबी भाषा इस क्षेत्र की साहित्यिक एवं अभिव्यक्ति की भाषा थी। इसीलिए इस विज्ञान को अरबी विज्ञान कहा गया है।
(घ) आठवीं सदी के बाद भारत-अरब सम्बन्ध—
सातवीं शताब्दी में अरब में इस्लाम का उदय एक अन्तर्राष्ट्रीय घटना थी। अरबों ने बहुत उत्साह के साथ इस धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया। इसके लिए उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। आठवीं शताब्दी में उन्होंने भारत के सिन्ध प्रदेश को जीता। इसके राजनीतिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण थे। इससे अरबों और भारतीयों में सीधा सम्पर्क स्थापित हुआ। भारत और अरब में व्यापारिक सम्बन्ध बढ़े। अरबों ने अनेक भारतीय पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद किया। इस तरह भारतीय गणित, ज्योतिष, नक्षत्र-विद्या और चिकित्सा-विज्ञान बगदाद पहुँचा। बगदाद के खलीफ़ा हारून-उल-रशीद के समय में भारत के बगदाद के साथ सम्बन्धों का अधिक विकास हुआ। इसका कारण यह था कि भारत के एक चिकित्सक ने खलीफ़ा को रोग मुक्त कर दिया था। खलीफ़ा ने उसे अपने देश के शाही अस्पताल का सबसे बड़ा अधिकारी नियुक्त किया। अरबों ने भारतीय संगीत-शास्त्र एवं स्थापत्य कला से भी बहुत कुछ सीखा लेकिन मध्य युग में रूढ़िवाद के कारण भारतीय अरबों के नए ज्ञान का लाभ न उठा सके।
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