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शमसुद्दीन इल्तुतमिश | Biography Of Sultan Shamsuddin Iltutmish

Biography Of Sultan Shamsuddin Iltutmish in Hindi (1211-1236 A. D.)


शमसुद्दीन इल्तुतमिश (सन् 1211-1236 ई.) (Shamsuddin Iltutmish, 1211-1236 A. D.)


“इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था।” इस कथन की विवेचना कीजिए। (“Iltutamish was the real founder of Delhi Sultanate.” Discuss this statement.)


इल्तुतमिश की प्रमुख समस्याएँ क्या थीं? उसने इन समस्याओं का समाधान कैसे किया? (What were the main problem of Iltutamish? How he solved these problems?) 


इल्तुतमिश के चरित्र एवं उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the character and achievements of Iltutamish.)


Biography of Sultan Shamsuddin Iltutmis Uniexpro.in
Biography of Sultan Shamsuddin Iltutmish


प्रारम्भिक जीवन (Early Life)

इल्तुतमिश का जन्म मध्य एशिया के एक इल्बारी तुर्क परिवार में हुआ था। वह आकर्षक तथा गुणसम्पन्न बालक था। उसके ईर्ष्यालु भाइयों ने उसे जमालुद्दीन मुहम्मद नामक एक दास व्यापारी को बेच दिया। गजनी में कुतुबुद्दीन ने उसे जमालुद्दीन से खरीदा। यहाँ उसने सैनिक शिक्षा प्राप्त की। अपने गुणों तथा योग्यता से वह स्वामी का कृपापात्र बन गया। सन् 1205 ई. में उसने खोखरों के विरुद्ध युद्ध में असीम वीरता तथा साहस का प्रदर्शन किया था जिसके कारण मुहम्मद गौरी ने उसे दासता से मुक्त कर दिया था। ग्वालियर की विजय के बाद उसे ग्वालियर का किलेदार नियुक्त कर दिया गया। इसके बाद उसे बरन का गवर्नर नियुक्त किया गया। कुतुबुद्दीन उसकी योग्यता से इतना अधिक प्रभावित था कि उसने अपनी पुत्री का विवाह इल्तुतमिश से कर दिया।1 कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद दिल्ली के नागरिकों तथा अधिकारियों ने मुख्य काजी के परामर्श पर उसे दिल्ली आमन्त्रित किया और उससे सुल्तान बनने का आग्रह किया। आराम शाह को पराजित करके उसने सुल्तान पद सुरक्षित कर लिया।

राज्यारोहण (Succession)—

इल्तुतमिश के राज्यारोहण का आधार निर्वाचन था। दिल्ली के नागरिकों ने उसका निर्वाचन किया था क्योंकि उस संकट काल में वे एक अनुभवी सैनिक तथा प्रशासक का नेतृत्व चाहते थे जो उन्हें सुरक्षा प्रदान कर सके। उन्हें निर्बल और अयोग्य आराम शाह के नेतृत्व में विश्वास नहीं था। आराम शाह का निर्वाचन लाहौर के नागरिकों का कार्य था। ऐसी स्थिति में युद्ध अनिवार्य हो गया था। इसमें इल्तुतमिश को सफलता मिली। इस प्रकार अपनी योग्यता से इल्तुतमिश ने अपने निर्वाचन के औचित्य को प्रमाणित किया। संक्षेप में, डॉ. आर. पी. त्रिपाठी के अनुसार, “सिंहासन पर उसका अधिकार तीन बातों पर आधारित था—उसका अधिकारियों ने निर्वाचन किया था, उसने विजय प्राप्त की थी तथा वह शक्तिशाली था, उसे खलीफा ने मान्यता प्रदान की थी।” 

इल्तुतमिश की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ तथा समस्याएँ (Early Difficulties and Problems of Iltutmish)—राज्यारोहण के समय इल्तुतमिश के सम्मुख अनेक समस्याएँ थीं जिनका उसने सामना किया और उचित अवसरों पर उन्हें हल किया। ये समस्याएँ निम्नांकित थीं—

(1) विभाजित साम्राज्य—

इल्तुतमिश को केवल दिल्ली का राज्य प्राप्त हुआ था। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद ही तुर्क सल्तनत चार भागों में विभाजित हो गई थी। दिल्ली और लाहौर की फूट और संघर्ष नीति का भी दुष्प्रभाव पड़ा था। सुदूर बंगाल की राजधानी लखनौती में गवर्नर अली मर्दान ने अपनी स्वतन्त्रता की
घोषणा कर दी थी और मिनहाज के अनुसार उसने ‘सुल्तान’ की उपाधि के साथ सिक्के भी जारी किये थे। कुबाचा ने भी इस अवसर का लाभ उठाकर मुल्तान पर कब्जा कर लिया और भटिण्डा, कुहराम और सरस्वती तक अपना राज्य विस्तृत कर लिया। पश्चिमी पंजाब पर एलदौज का अधिकार था। 

(2) राजपूत राजाओं का स्वतन्त्र होना—

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद तुर्क सल्तनत छिन्न-भिन्न हो गई थी। इस स्थिति का राजपूत राजाओं ने लाभ उठाकर स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। उन्होंने दिल्ली को कर भेजना बन्द कर दिया था। इनमें जालौर और रणथम्भौर प्रमुख थे। अजमेर, ग्वालियर, बयाना और दोआब के राजपूतों ने भी तुर्कों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इल्तुतमिश के अधिकार में केवल दिल्ली, बदायूँ, पूरब में वाराणसी तथा उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों तक का क्षेत्र था।

(3) एलदौज का दिल्ली सल्तनत पर दावा—

गजनी का शासक एलदौज दिल्ली के तुर्क साम्राज्य पर अपना दावा कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से ही प्रस्तुत कर रहा था। ऐबक की मृत्यु के बाद यह संकट इल्तुतमिश के सामने भी था और इल्तुतमिश की शक्ति इतनी नहीं थी कि वह एलदौज से संघर्ष कर सकता। 

(4) कुतुबी अमीर—

अनेक कुतुबी अमीर इल्तुतमिश के विरोधी थे। विशेष रूप से लाहौर के कुतुबी अमीर उससे रुष्ट थे। उन्होंने आराम शाह का
 समर्थन किया था और वे इल्तुतमिश को सुल्तान मानने के लिए तैयार नहीं थे। वे दिल्ली में भी उसके विरुद्ध षड्‌यन्त्र कर रहे थे। 

इल्तुतमिश की सफलताएँ व कार्य (Successes and Functions of Iltutmish)—

इल्तुतमिश की स्थिति इतनी सशक्त नहीं थी कि वह इन सभी समस्याओं का एक साथ सामना कर सकता। अतः सैनिक उपायों के स्थान पर उसने कूटनीति का सहारा लिया। हबीबुल्ला ने लिखा है कि, “नवीन सुल्तान की स्थिति इतनी अरक्षित थी कि वह तत्काल कोई कार्यवाही नहीं कर सकता था। उसने सार्वभौमिक सत्ता धारण करने के लिए स्वयं को सुरक्षित नहीं समझा। वह यथार्थवादी था और उस समय के लिए समझौता करना ही उसने बुद्धिमत्ता समझी।”

चालीस गुलाम सरदारों के गुट का संगठन—


इल्तुतमिश ने चालीस गुलाम सरदारों के एक गुट का गठन किया। इस संगठन का नाम ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ रखा गया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आरंभ में ही कुछ ‘कुनबी’ अर्थात् कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के सरदार और ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद गौरी के समय के सरदारों ने इल्तुतमिश के सिंहासन पर बैठते ही उसका कड़ा विरोध शुरू कर दिया। यद्यपि इल्तुतमिश ने उनके विद्रोह को समाप्त तो कर दिया, परन्तु वह उन पर कभी पूर्ण विश्वास न कर सका। अतः उसने अपने विश्वास पात्र गुलाम सरदारों के एक गुट का गठन कर लिया। यह गुट ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुछ इतिहासकारों ने इसे ‘चालीस अमीरों का दल’ अथवा ‘चालीस’ कह कर संबोधित किया है। इस गुट में ‘चालीस’ सदस्य थे। ये सभी चालीस गुलाम सरदार खरीदे गए थे। चालीसा संगठन के सभी सदस्यों को राज्य में प्रतिष्ठित पद प्रदान किए गए और शासन के विविध कार्यों में उनसे सहयोग किया गया। ‘चालीसा गुट’ में शामिल सभी सदस्य पूरी तरह इल्तुतमिश पर निर्भर करते थे और इसी कारण उच्च पदों तक पहुँचे थे। इसी कारण वे इल्तुतमिश के प्रति सदैव निष्ठावान रहे। इससे इल्तुतमिश की ‘कुतबी’ और ‘मुइज्जी’ सरदारों पर निर्भरता नष्ट हो गई। 

एलदौज से समझौता—

इल्तुतमिश ने एलदौज से समझौता करने की नीति अपनायी जो बाह्य रूप से एलदौज से संघर्ष टालने का प्रयास था। एलदौज ने दिल्ली सल्तनत पर सार्वभौमिक सत्ता का दावा करने के उद्देश्य से इल्तुतमिश को छत्र, दण्ड आदि राजचि भेजे जिन्हें इल्तुतमिश ने स्वीकार करने का बहाना किया। 

अमीरों का दमन—

इल्तुतमिश के सम्मुख एक और गम्भीर संकट यह उत्पन्न हो गया, कि दिल्ली के सैनिक रक्षकों (जानदार) ने आराम शाह की पार्टी से मिलकर विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का दमन करने में काफी रक्तपात के बाद इल्तुतमिश ने सफलता प्राप्त में उसके बराबर रह चुके थे। 

एलदौज का दमन—

एलदौज की सत्ता का दमन करने का अवसर इल्तुतमिश को सन् 1215 ई. में मिला। एलदौज ने कुबाचा को लाहौर से निकालकर पंजाब के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया था। इल्तुतमिश के लिए यह गम्भीर संकट था क्योंकि इससे ख्वारिज्म के शाह का गजनी जीतने के बाद पंजाब पर भी आक्रमण करना स्वाभाविक था। इल्तुतमिश ने इसके लिए तुरन्त सैनिक कार्यवाही नहीं की बल्कि अवसर की प्रतीक्षा की। सन् 1214 ई. में ख्वारिज्म के शाह ने गजनी पर अधिकार कर लिया। एलदौज भागकर लाहौर आ गया और उसने दिल्ली पर भी दावा किया। इल्तुतमिश ने अब निश्चयात्मक कार्यवाही की और तराइन के युद्ध में उसे पराजित किया और बन्दी बनाकर बदायूँ के किले में भेज दिया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एलदौज का संकट समाप्त कर दिया गया। 

हबीबुल्ला ने लिखा है कि, 

“इस विजय से ऐबक का कार्य पूरा हो गया। दिल्ली की स्वतन्त्रता और मध्य एशिया की राजनीति से उसकी पृथकता की बाधा अन्तिम रूप से समाप्त हो गई। दिल्ली अब एक सार्वभौम राज्य था, व्यावहारिक रूप से यद्यपि सिद्धान्त रूप में नहीं।” 

निजामी और हबीब का मत है कि, “इल्तुतमिश के लिए यह दोहरी विजय थी। उसकी सत्ता ललकारने वाले सबसे भयंकर शत्रु का विनाश और गजनी से अन्तिम रूप से सम्बन्ध-विच्छेद, जिसके फलस्वरूप दिल्ली का स्वतन्त्र अस्तित्व निश्चित हो गया।” इस विजय के बाद भी इल्तुतमिश ने लाहौर पर अधिकार नहीं किया, वरन् कुबाचा के अधिकार में ही रहने दिया। लेकिन दो वर्ष बाद सन् 1217 ई. में उसे जीतकर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। 

मंगोल आक्रमण का भय—

सन् 1220 ई. में दिल्ली के नव-संगठित राज्य के लिए मंगोल आक्रमण का भय उत्पन्न हो गया। चंगेज खाँ के नेतृत्व में मंगोलों ने मध्य एशिया के ख्वारिज्म के राज्य को तहस-नहस कर डाला। ख्वारिज्म का युवराज जलालुद्दीन मांगबर्नी भागकर पंजाब की ओर आया। मंगोलों ने उसका तेजी से पीछा किया। मांगबर्नी ने खोखर सामन्त की पुत्री से विवाह करके, खोखरों की सहायता प्राप्त कर ली और कुबाचा को पराजित करके सिन्ध-सागर दोआब क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इसके बाद वह लाहौर की ओर बढ़ा और इल्तुतमिश के पास दूत भेजकर प्रार्थना की कि वह शरण देने की कृपा करे। इल्तुतमिश को ज्ञात था कि मांगबर्नी को शरण देने का अर्थ मंगोलों को आक्रमण का न्योता देना होगा। यह स्थिति दिल्ली सल्तनत के लिए आत्मघाती होती और इससे मंगोलों को आक्रमण करने का अवसर मिलता। इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत को मध्य एशिया की राजनीति से पृथक् रखने के लिए कटिबद्ध था। अतः मांगबर्नी को शरणदेना उसने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।1 सन् 1224 ई. में मांगबर्नी ने भारत छोड़ दिया और वह फारस चला गया। इस प्रकार दूरदर्शितापूर्ण नीति से इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत की रक्षा करने में सफलता प्राप्त की। मंगोल अफगानिस्तान से ही वापस लौट गये। 

कुबाचा का दमन—

मांगबर्नी भारत में तीन वर्ष रहा था। इल्तुतमिश द्वारा शरण देने से इन्कार करने पर वह लाहौर से उच्छ मुल्तान होते हुए सिन्ध चला गया। यहाँ अपने अधिकारियों के परामर्श से उसने फारस जाने का निर्णय किया। भारत में तीन वर्षों तक मांगबर्नी के रहने का परिणाम यह हुआ कि कुबाचा की शक्ति नष्ट हो गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर इल्तुतमिश ने सन् 1225 ई. में कुबाचा पर आक्रमण करके लाहौर, भटिण्डा, कोहराम पर अधिकार कर लिया। कुबाचा ने भागकर सिन्ध में भक्खर के किले में शरण ली। इल्तुतमिश की सेना ने भक्खर को घेर लिया। इस स्थिति में वह सिन्धु नदी में डूबकर मर गया। इस प्रकार कुबाचा का अन्त हुआ और इल्तुतमिश का पंजाब और सिन्धु पर अधिकार हो गया। दक्षिण सिन्ध (देबल) के सूमरा शासक सिनानुद्दीन चेनसर ने भी इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली।

बंगाल की विजय—

इल्तुतमिश के राज्यारोहरण के समय बंगाल के गवर्नर अली मर्दान ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी थी। वह अत्याचारी शासक था। अतः एक खिलजी सरदार हिसामुद्दीन एवाज ने उसका वध करके सत्ता पर अधिकार कर लिया। इल्तुतमिश एलदौज और मंगोल समस्या के कारण बंगाल की ओर ध्यान नहीं दे सका। मंगोल आक्रमण की आशंका समाप्त होने के बाद इल्तुतमिश सन् 1226 ई. में बंगाल गया। हिसामुद्दीन ने बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और बिहार पर अधिकार छोड़ दिया जिसे दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया। इल्तुतमिश के वापस लौटते ही एवाज पुनः स्वतन्त्र हो गया। सन् 1226 ई. में इल्तुतमिश के पुत्र नासिरुद्दीन ने उसे पराजित किया और उसे मार डाला। इसके बाद भी बंगाल में अशान्ति बनी रही। सन् 1230 ई. में इल्तुतमिश ने तीसरी बार सेना बंगाल भेजी और बंगाल पर सफलतापूर्वक अधिकार कर लिया।

राजपूत राज्यों पर विजय—

सन् 1206 ई. के बाद से ही तुर्कों की शिथिलता के कारण अनेक राजपूत राज्य स्वतन्त्र हो गए थे। कालिंजर के चन्देल और ग्वालियर के प्रतिहार शासकों ने अपने राज्यों का विस्तार भी कर लिया था। राजस्थान में रणथम्भौर, जालौर के चौहान शासक और अलवर क्षेत्र के भट्टी राजपूतों ने स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। इल्तुतमिश ने इन राज्यों को पुनः जीतने का अभियान सन् 1226 ई. में आरम्भ किया। सबसे पहले उसने रणथम्भौर जीता और वहाँ तुर्क सेना रख दी। सन् 1227 ई. में उसने मन्दौर को अधिकृत किया। इसके बाद जालौर, बयाना और थंगीर को जीता गया। अन्त में अजमेर, नागौर को जीतकर इल्तुतमिश ने वहाँ तुर्क गवर्नर नियुक्त किये।

बुन्देलखण्ड की पुनर्विजय—

बुन्देलखण्ड की पुनर्विजय में इल्तुतमिश को आंशिक सफलता ही मिली। सन् 1231 ई. में उसने ग्वालियर जीता और रशीदउद्दीन को वहाँ का किलेदार नियुक्त किया। सन् 1233 ई. में इल्तुतमिश ने मलिक तयसाई को कालिंजर पर आक्रमण करने भेजा। तयसाई ने बुन्देलखण्ड को लूटा लेकिन कालिंजर के किले को जीतने में वह असफल रहा। वापस होते समय तयसाई की सेना पर राजपूतों ने आक्रमण कर दिया और उसे लूट लिया। 

दोआब की पुनर्विजय—

कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद दोआब के अनेक क्षेत्र जिनमें बदायूँ, कन्नौज और वाराणसी प्रमुख थे, स्वतन्त्र हो गये। इनके अतिरिक्त कटेहर, बहराइच में भी राजपूतों ने स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। इल्तुतमिश ने दृढ़ संकल्प के साथ इन क्षेत्रों पर पुनर्विजय की। उसने इन क्षेत्रों में तुर्क सेनाओं को भेजा। मिनहाज के वर्णन से प्रतीत होता है कि भयंकर रक्तपात के बाद तुर्क सेनाएँ इन क्षेत्रों पर अधिकार कर सकीं। इल्तुतमिश ने अपने ज्येष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन को अवध का सूबेदार नियुक्त किया जिसने विद्रोह का दमन किया। खलीफा का अधिकार-पत्र—इल्तुतमिश ने दिल्ली क्षेत्रों की पुनर्विजय द्वारा सल्तनत को फिर से स्थापित किया। इस कार्य में उसे पच्चीस वर्ष लगे और इस दीर्घकाल में उसने सल्तनत को स्थायित्व प्रदान किया। दिल्ली सल्तनत तथा सुल्तान पद की वैधानिक मान्यता के लिए उसने खलीफ़ा अल-मुस्तगीर बिल्लाह से अधिकार-पत्र और खिलअत प्राप्त की। इस प्रकार वह दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक और उसका प्रथम सुल्तान था। सन् 1236 ई. में बानियान जाते समय मार्ग में इसकी मृत्यु हो गई।

इल्तुतमिश का चरित्र व मूल्यांकन (Iltutmish’s Character and Estimation)

इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। कुतुबुद्दीन ने अनेक विजय प्राप्त की थीं लेकिन उसमें प्रशासनिक संगठन की योग्यता नहीं थी। अतः अनेक विद्वान् कुतुबुद्दीन को भारत में मुस्लिम राज्य का संस्थापक नहीं मानते हैं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, “इल्तुतमिश दास वंश का वास्तविक संस्थापक था।” डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार का मत है कि, “प्रारम्भिक तुर्क सल्तनत के शासकों में सर्वोच्च इल्तुतमिश था।” इसी प्रकार का मत

लेनपूल का है कि, “इल्तुतमिश गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक था। ऐबक को साम्राज्य दृढ़ और संगठित करने का अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ।” 

दिल्ली सल्तनत का संस्थापक—

दिल्ली सलानत की स्थापना में इल्तुतमिश की निम्नांकित उपलब्धियाँ थीं— 

प्रथम, उसने कुतुबी अमीरों का दमन करके अपनी सत्ता को सुदृढ़ किया। इसके लिए उसे आराम शाह के समर्थकों से युद्ध करना पड़ा। 

द्वितीय, उसने एलदौज और कुबाचा जैसे प्रतिद्वन्दियों को कूटनीतिक चालों तथा अन्त में सैनिक कार्यवाही से समाप्त कर दिया। एलदौज स्वयं को दिल्ली सल्तनत का सार्वभौम शासक मानता था और कुबाचा ने कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी थी। 

तृतीय, उसने मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा की जो एक गम्भीर संकट था। 

चतुर्थ, उसने राजस्थान, बुन्देलखण्ड, दोआब, अवध के राजपूतों को पराजित करके सल्तनत के क्षेत्र को पुनर्विजित किया। 

पंचम, उसने बंगाल और बिहार को फिर से जीता। वास्तव में कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद सल्तनत छिन्न- भिन्न हो चुकी थी। इल्तुतमिश ने इसे पुनः स्थापित किया और स्थायी बनाया। योग्य प्रशासक—इल्तुतमिश असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न सेनापति और प्रशासक था। उसने प्रशासन तन्त्र को नियमित आधार पर संगठित किया, किलों में सैनिकों की नियुक्ति की, राजस्व व प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किये, मुद्रा सम्बन्धी सुधार किये। 

(1) उसने योग्य अधिकारियों का एक वर्ग संगठित किया। ये उसके गुलाम थे जिनकी सेवा और निष्ठा में इल्तुतमिश को विश्वास था। 

(2) न्याय व्यवस्था के लिए उसने सभी नगरों में काजियों की नियुक्ति की। 

(3) उसने शुद्ध अरबी भाषा के चाँदी के टंके जारी किए जिनका भार 175 ग्रेन था। प्रो. हबीब और डॉ. निजामी ने लिखा है कि, “उसने देश को एक राजधानी, स्वतन्त्र राज्य, राजतन्त्रीय प्रशासन और शासक वर्ग प्रदान किया। अपने अथक् परिश्रम और सावधानी से अपने उद्देश्य के अनुरूप उसने भारत में गोरियों द्वारा अधिकृत दुर्बल प्रदेश को एक सुसंगठित राज्य में परिवर्तित कर दिया।” मुस्लिम प्रभुसत्ता व वंशानुगत शासन—भारत में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक आरम्भ इल्तुतमिश के शासन से होता है। उसने पुनर्विजय के द्वारा स्थायी सल्तनत की स्थापना की। इस व्यावहारिक प्रभुसत्ता की वैधानिक स्वीकृति उसने खलीफ़ा से प्राप्त की। इल्तुतमिश ने शासक वर्ग का गठन किया और वंशानुगत शासन स्थापित किया। उसकी मृत्यु के बाद तुर्क अमीरों ने उसके पुत्रों को ही गद्दी पर बिठाया। यह उसकी नीति की सफलता थी। व्यक्तित्व—इल्तुतमिश का व्यक्तित्व आकर्षक था। उसमें साहस, शौर्य और बुद्धिमत्ता के गुण थे। वह नियमित रूप से धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करता था। उसने धार्मिक कट्टरता का प्रदर्शन किया और हिन्दुओं के मन्दिरों का विनाश किया। उसने उलेमाओं को सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न किया। वह कला और साहित्य का संस्थापक था। उसने मिनहाज और इसामी जैसे विद्वानों को राज्याश्रय प्रदान किया। स्थापत्य के क्षेत्र में उसने कुतुबमीनार को पूरा कराया तथा कुबात-उल-इस्लाम मस्जिद का विचार किया। 

इतिहास में स्थान—ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार इल्तुतमिश के तीन मुख्य कार्य थे—

(1) नवस्थापित तुर्की राज्य को नष्ट होने से बचाना, 

(2) उसे वैधानिक स्थिति प्रदान करना, 

(3) दिल्ली की गद्दी पर अपने पुत्रों का उत्तराधिकार निश्चित करके अपने वंश की स्थायी नींव डालना। एक विजेता तथा प्रशासक के रूप में इतिहास में उसका ऊँचा स्थान है। मिनहाज उसके व्यक्तिगत गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखता है कि, “वह अपने प्रयत्नों से साम्राज्य के सिंहासन पर आसीन हुआ था।” यह सत्य है कि उसने शियाओं और हिन्दुओं पर अत्याचार किये लेकिन इनका कारण राजनीतिक भी था। उसने अराजकता में व्यवस्था स्थापित की थी। हबीबुल्ला ने इल्तुतमिश का मूल्यांकन इन शब्दों में किया है कि, “इल्तुतमिश को महान् कहना अतिशयोक्ति होगी लेकिन वह असाधारण रूप से योग्य शासक था जिसने सल्तनत की गतिविधियों पर अमिट छाप छोड़ी है।” उसने आगे लिखा है कि, “ऐबक ने दिल्ली सल्तनत तथा उसकी सार्वभौमकिता की रूपरेखा बनाई, इल्तुतमिश निस्सन्देह इसका पहला सुल्तान था।” इल्तुतमिश ने बिना साधन या समर्थन कि विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया था। इस सम्बन्ध में वूल्जले हेग ने लिखा है कि, “इल्तुतमिश सभी गुलाम सुल्तानों में महान् था। उसकी उपलब्धियाँ उसके स्वामी के समान नहीं थीं लेकिन उसे ऐबक के समान एक शक्तिशाली साम्राज्य का नैतिक और भौतिक समर्थन प्राप्त नहीं था। जो कुछ भी उसने किया, केवल अपने बलबूते पर किया और अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए ऐबक के साम्राज्य में, जिसे उसने असंगठित और विघटित पाया था, अनेक क्षेत्रों को जोड़ा।”

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