प्राचीन भारत के इतिहास के स्रोत (Sources of Ancient Indian History)
डॉ० आर०सी० मजूमदार का मत है : “इतिहास लेखन के प्रति भारतीयों की विमुखता भारतीय संस्कृति का भारी दोष है। इसका कारण बताना सरल नहीं है। भारतीयों ने साहित्य की अनेक शाखाओं से सम्बन्ध स्थापित किया और उनमें से कई विषयों में विशिष्टता भी प्राप्त की, किन्तु फिर भी उन्होंने कभी गम्भीरतापूर्वक इतिहास-लेखन की ओर ध्यान नहीं दिया।” अल्बरूनी (Alberuni) ने भी लगभग ऐसे ही विचार प्रकट किए हैं, यथा : “हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर अधिक ध्यान नहीं देते। वे घटनाओं को काल क्रम के अनुसार लिपिबद्ध करने में अत्यन्त असावधानी से काम लेते हैं और जब कभी ऐतिहासिक जानकारी के लिए उन पर दबाव डाला जाता है तो उत्तर देने में समर्थ न होने पर वे कोई कहानी सुनाना आरम्भ कर देते हैं।”
ऐतिहासिक बोध (Historical Sense)
कुछ लेखकों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि प्राचीन भारत के लोगों में ऐतिहासिक बोध था ही नहीं, किन्तु उपर्युक्त विचार को अब सामान्यतः स्वीकार नहीं किया जाता। डॉ० ए०बी० कीथ (A.B. Keith) जैसे विद्वान् भी यह स्वीकार करते हैं कि “भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना का प्राचीन काल में भी अभाव नहीं था, इसका प्रमाण कुछ ग्रन्थों तथा तथ्यों से प्राप्त होता है। भारतीयों की प्राचीनता और उनकी विकसित सभ्यता के रूप से दृष्टि हटाकर उनमें ऐतिहासिक चेतना के अभाव को ढूँढ़ना हास्यास्पद होगा...।” किन्तु डॉ० कीथ यह भी कहते हैं कि “इतने विशाल संस्कृत साहित्य में इतिहास को कोई प्रमुख स्थान प्राप्त न हो सका और संस्कृत साहित्य के महान् युग में एक भी ऐसा लेखक नहीं हुआ जिसे समालोचनात्मक इतिहासज्ञ (critical historian) कहा जा सके।” डॉ० कीथ ने इस तथ्य के विभिन्न कारण ढूँढ़ने की चेष्टा की है। उसका विचार है कि यूनान पर होने वाले ईरानी आक्रमण ने जिस प्रकार हैरोडोटस (Herodotus) के इतिहास को प्रेरणा प्रदान की, वैसी प्रेरणा भारतीय राजनीतिक घटना-चक्रों से भारतीय विद्वानों को प्राप्त न हो सकी। भारत की जनता पर उस समय की राजनीतिक घटनाओं का इतना प्रभाव नहीं पड़ा कि उनमें सर्वसाधारण को भाग लेना पड़े। ईसा पूर्व पहली शताब्दी में भारत पर होने वाले विदेशी आक्रमण सम्भवतः इतने महत्त्वपूर्ण न थे कि लोगों में राष्ट्रीय भावना जाग्रत कर सकते। यही बात सिकन्दर, यूनानियों, पार्थियों, शकों, कुषाणों तथा हूणों के आक्रमणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। भाग्यवादी भारतीयों के विरक्त रहने का कारण यह विचार था कि सभी घटनाएँ उनकी बुद्धि और दूरदर्शिता से परे हैं। उन्होंने चामत्कारिक घटनाओं को दिव्य कर्म, इन्द्र-जाल और
माया-जाल स्वीकार किया। भारतीय बुद्धि विशेष घटनाओं की अपेक्षा सामान्यता को अधिक महत्त्व प्रदान करती है। सुनी-सुनाई बातों और वास्तविकता के अन्तर को समझने की उन्होंने कभी चेष्टा न की। परिणामस्वरूप घटनाओं के क्रम की पूर्ण उपेक्षा कर दी गई और कालानुक्रम की ओर ध्यान न दिया गया।१ इसके विपरीत, भारतीय विद्वानों का विचार यह है कि भारतीयों में निश्चय ही ऐतिहासिक चेतना विद्यमान थी। ऐतिहासिक निबन्ध की विशाल विविधता और अन्य अनेक तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना विद्यमान थी। डॉ० पी०के० आचार्य का कथन है कि कलिंग के राजा खारवेल, रुद्रदमन, समुद्रगुप्त, कन्नौज के सम्राट् हर्ष और चालुक्य, राष्ट्रकूट, पाल तथा सेन वंशी राजाओं के शिलालेखों से विश्वसनीय तिथियों सहित पर्याप्त ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। इन अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं और दान-दाताओं की वंशावलियों, राजाओं के कार्यों और दान की अवस्था का पता चलता है। इन शिलालेखों से ज्ञात होता है कि धर्मार्थ संस्थाओं के स्थापक कौन थे; उन्हें प्रतिष्ठित करने वाले पुरोहितों के विषय में भी जानकारी भी उन्हीं से प्राप्त होती है। कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंशी राजाओं को बादामी के चालुक्य वंशी आरम्भिक राजाओं की जानकारी राजवंशीय अभिलेखागारों (archives) से ही प्राप्त हुई। दक्षिणी कोंकण के शीलहर राजाओं (Silaharas) ने अपने शिलालेखों तथा अपने शासक राष्ट्रकूट वंशी राजाओं के शिलालेखों की रक्षा की। उन्होंने राजावलियों और वंशावलियों को संकलित किया और उन्हें सुरक्षित रखा। पूर्वी चालुक्यों द्वारा दिए गए अनुदानों में
वंश के सभी राजाओं के नाम दिए गए हैं जो वंश के संस्थापक से आरम्भ होते हैं। कलिंग के पूर्वी गंग वंशी राजाओं ने अपनी वंशावलियों में तत्कालीन राजाओं का भी विस्तृत वर्णन किया है। नेपाल की एक लम्बी वंशावली में उस देश के राजाओं के नाम, राज्य-काल और सिंहासनारूढ़ होने की तिथियाँ दी गई हैं। उड़ीसा की वंशावलियों में 3102 ईसा पूर्व तक के कलियुग के राजाओं की लगातार सूची दी गई है। उनके राज्य काल की अवधियाँ ही नहीं बल्कि मुख्य घटनाओं की तिथियाँ भी दी गई हैं। जैन-मतावलम्बियों के पास ‘पट्टावलियाँ’ हैं जिनमें वर्धमान महावीर की मृत्यु तक की सभी घटनाएँ लिखी हैं। पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में ऐसे भोज-पत्र हैं जिनमें भारत के प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में विश्वसनीय और सुनिश्चित बातें लिखी हैं। सर आर०जी० भण्डारकर और पीटरसन द्वारा संग्रहीत साहित्यिक पुस्तकों की भूमिकाओं और टिप्पणियों (colophons) में बहुत सी ऐतिहासिक तिथियाँ तथा अन्य सामग्री मिलती है। सोमदेव ने लिखा है कि “उसने चैत्र शक् संवत् 881 (959 ई०) में अपनी कृति “यशस्तिलक पूर्ण की जब कृष्णराज देव चालुक्य राज्य करता था।” पम्प द्वारा रचित “पम्प भारत” अथवा “विक्रमार्जुन-विजय” में राजा अरिकेसरिन का उल्लेख किया गया है और उसके साथ उसकी गत सात पीढ़ियों का भी उल्लेख किया गया है। जल्हण ने देवगिरि के भिल्लम, सिंहोना, कृष्ण, मल्लुगी आदि यादव राजाओं का उल्लेख किया है। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि प्राचीन हिन्दुओं में ऐतिहासिक चेतना थी। अतः प्राचीन इतिहास सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री प्राप्त की जा सकती है।
(1) साहित्यिक स्त्रोत (Literary Sources)
भारतीय साहित्य कुछ अंश तक धार्मिक है और कुछ अंश तक
लौकिक है। “ऋग्वेद,” “सामवेद,” “यजुर्वेद” और “अथर्ववेद” धार्मिक साहित्य है। इनमें “ऋग्वेद” प्राचीनतम है, जो आर्यों की राजनीतिक प्रणाली और इतिहास सम्बन्धी जानकारी प्रदान करता है। वैदिक श्लोकों तथा संहिताओं की टीकाएँ “ब्राह्मणों” में मिलती हैं। ये टीकाएँ गद्य में हैं। “आरण्यकों” तथा “उपनिषदों” में आत्मा, परमात्मा तथा संसार के सम्बन्ध में दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है। इनसे आर्यों के धार्मिक विचारों का चित्र पाठक के समक्ष उपस्थित होता है। इनके अतिरिक्त छः “वेदांग” हैं : “शिक्षा”, “ज्योतिष”, “कल्प”, “व्याकरण”, “निरुक्त” और “छन्द”। वेदों को समझाने के लिए ही “वेदांगों” की रचना की गई थी। समय की करवटों ने विभिन्न विचारधाराओं को जन्म दिया। इन विचारधाराओं के आधार पर वेदों के विधिवत् अध्ययन पर बल दिया गया। इस प्रकार “सूत्रों” की रचना हुई। “कल्पसूत्रों” की रचना कर्मकाण्ड अर्थात् रीति-रिवाजों को निभाने के लिए हुई। ये चार प्रकार के हैं। “श्रौतसूत्र” महा-यज्ञ सम्बन्धी ज्ञान का स्त्रोत हैं। “गृह्यसूत्रों” में गृहस्थ सम्बन्धी संस्कारों की चर्चा की गई। “धर्मसूत्रों” का सम्बन्ध ‘धर्म’ अथवा विधि से है। “शुल्वसूत्रों”2 में बलिवेदी और अग्निवेदी के परिमाण और रचना की चर्चा की गई है। पार्जिटर (Pargiter) ने लिखा है कि वैदिक साहित्य में “ऐतिहासिक बोध का अभाव है और उस पर सदा विश्वास नहीं किया जा सकता।” डॉ० एस०एन० प्रधान का मत है कि “वैदिक साहित्य से प्राप्त प्रमाण अत्यन्त मूल्यवान और शक्तिशाली हैं। इनमें अधिकतर तत्कालीन रिकार्ड हैं या तत्कालीन प्रमाणों से ली गई परम्पराएँ हैं।” फिर भी इस स्रोत से प्राप्त प्रमाणों का प्रयोग सावधानी के साथ ही करना
चाहिए। इन पर अत्यधिक विश्वास भी नहीं करना चाहिए और न ही इनके प्रति उपेक्षा का व्यवहार करना चाहिए। वेदों के पश्चात् संस्कृत साहित्य के महान् काव्यों अर्थात्—“रामायण” और “महाभारत” का नाम आता है। वेदों को समझने वाले कम व्यक्ति थे किन्तु ये महाकाव्य सर्व-साधारण के लिए रोचक थे। ये महाकाव्य कवियों, नाटककारों तथा कथाकारों के लिए कथा-वस्तु प्रदान करके चिरकाल से एक अमूल्य कोष का कार्य करते आ रहे हैं; किन्तु ये ऐतिहासिक घटनाओं का स्थूल रूप हैं और इस तथ्य से महान आलोचक भी इन्कार नहीं कर सकते। डॉ० विण्टरनिट्ज (Winternitz) का कथन है कि “महाभारत की रचना पूर्ण होने से पहले ही ‘रामायण’ एक विख्यात और प्राचीन ग्रन्थ रहा होगा।” इन महाकाव्यों से उस युग के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान मिलता है। उस युग में आर्यों ने गंगा-यमुना तथा उनकी सहायक नदियों के किनारे अपने अत्यन्त छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए थे। इन राज्यों के निर्माण में बनों ने पर्याप्त योग दिया। आर्य युद्ध-प्रिय जाति थी। राज्यों की शक्ति बढ़ती जा रही थी किन्तु अभी तक किसी विशाल राज्य की स्थापना नहीं हो सकी थी। प्रशासन को मन्त्रियों तथा सभासदों की सम्मति से चलाया जाता था। अत्याचारी और कर्त्तव्य-विमुख राजाओं को हटा दिया जाता था। कभी-कभी तो राजाओं को उनके अपराध के लिए मृत्युदण्ड भी दे दिया जाता था। युद्ध-क्षेत्र में वही सेना का नेतृत्व करता था। युद्ध-क्षेत्र में उसकी मृत्यु हो जाने पर सेना भाग खड़ी होती थी। जाति-प्रथा दिनोंदिन दृढ़तर होती जा रही थी। नागरिक जीवन भी बढ़ता जा रहा था। नगर खाइयों और बड़े-बड़े प्राचीरों से घिरे रहते थे। कर चाँदी और ताँबे की
मुद्राओं या खाद्य-वस्तुओं के रूप में चुकाया जाता था। राजा महलों में रहते थे और सदा सामन्तों तथा नर्तकियों से घिरे रहते थे। आखेट, मद्यपान, जुआ, संग्राम आदि उनके प्रिय व्यापार थे। अतिथि-सत्कार चरमसीमा पर था। वीरता उस युग की प्रेरणा थी। क्षत्रिय राजकुमारियों को स्वयंवर रचने का अधिकार प्राप्त था। इस काल में पत्नी को इस प्रकार सम्मान दिया गया है : “वह अर्धांगिनी और सच्ची मित्र है। वह गुणों का स्रोत और आनन्द तथा लक्ष्मी का रूप है। वह एकान्त में मित्र तुल्य और परामर्श में पिता-तुल्य है। जीवन के बीहड़ मार्ग में वह विश्राम का साकार रूप है।” महाकाव्यों ने अपना वर्त्तमान रूप कब धारण किया, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इनके पूर्व खण्ड तो अत्यन्त प्राचीन होंगे किन्तु क्षेपकों को बाद में समय-समय पर इन प्राचीन खण्डों में जोड़ा जाता रहा होगा। कुछ लेखकों का मत है कि महाकाव्यों के नवीनतम क्षेपक द्वितीय शती ई० (second century A.D.) में जोड़े गए होंगे। यह भी सम्भव है कि यह कार्य अनुमानित समय से कुछ पूर्व ही हुआ हो। महाकाव्यों के मौलिक अंश ईसा पूर्व द्वितीय या तृतीय शती से पहले ही लिखे गए होंगे। नारद, बृहस्पति, विष्णु, याज्ञवल्क्य तथा मनु की ‘स्मृतियों’ जैसे धर्मशास्त्र हिन्दू समाज के सम्बन्ध में हमें पर्याप्त सूचना प्रदान करते हैं। हिन्दू समाज के जीवनयापन के सम्बन्ध में नियमों का निर्माण धर्मशास्त्रों में ही किया गया है। इन नियमों के उल्लंघन की दशा में दण्ड का भी विधान था। डॉ० बूह्लर (Buhler) का लेख है कि “मनुस्मृति” की रचना 200 ईसा पूर्व और 200 ईसा पश्चात् के मध्य में हुई होगी। अन्य स्मृतियों की रचना इसके पश्चात् ही हुई होगी। डॉ० विण्टरनिट्ज़ (Winternitz) ने लिखा है कि पुराणों में दी गई वंशावलियाँ राजनीतिक इतिहास के निर्माण में इतिहासकारों और पुराविदों के लिए अत्यन्त सहायक हैं; तथापि इनका प्रयोग अत्यन्त सावधानी तथा छान-बीन के पश्चात् ही करना चाहिए। धार्मिक इतिहास की दृष्टि से वे अमूल्य हैं। इसलिए उनका अध्ययन अत्यावश्यक है। पुराणों द्वारा ही हम हिन्दू धर्म, इसकी पौराणिकता, मूर्ति-पूजा, ईश्वरवाद, सर्वेश्वरवाद, भगवत्वात्सल्य, दर्शन, अन्धविश्वासों, त्यौहारों, प्रथाओं तथा नीति के प्रत्येक पक्ष का अध्ययन कर सकते हैं। साहित्यिक दृष्टि से ये रुचिकर नहीं हैं। भाषा का प्रयोग इनमें स्वच्छन्दता से किया गया है। कविता में भी स्वर पर आधारित रहने के कारण व्याकरण की उपेक्षा कर दी गई है। कुछ पश्चिमी विद्वानों का मत है कि पुराण संस्कृत साहित्य में गत सहस्र वर्षों में ही ये अस्तित्व में आये हैं, किन्तु यह मत अब नहीं माना जाता। बाण कवि “पुराणों” को अच्छी तरह से जानता था। उसने लिखा है कि उसने अपने गाँव में “वायव्य पुराण” की कथा को सुना था। कुमारिल भट्ट की दृष्टि में पुराण नियम तथा विधान के आदि स्रोत हैं। शंकराचार्य तथा रामानुजाचार्य की दृष्टि में पुराण धार्मिक तथा पवित्र पुस्तकें हैं। अल्बरूनी को पुराणों की पर्याप्त जानकारी थी। उसने अठारहों पुराणों की सूची दी है। उसने विभिन्न पुराणों से अनेक उद्धरणों को अवतरित भी किया है। डॉ० विण्टरनिट्ज़ का मत है कि पुराण सर्वप्रथम ईसवी संवत् की प्रथम सदी में अस्तित्व में आये। प्रथम शती ई० में लिखी गई बौद्ध धर्म की महायान शाखा की पुस्तकें पुराणों से बहुत कुछ मिलती-जुलती हैं।
पुराणों और “ललितविस्तार” में पर्याप्त समानता है। पुराणों की संख्या अठारह है किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से सभी का महत्त्व समान नहीं है। जहाँ तक इतिहास के स्रोतों का प्रश्न है “विष्णु पुराण”, “वायव्य पुराण”, “मत्स्य पुराण”, “ब्रह्म पुराण” और “भविष्यत् पुराण” ही महत्त्वपूर्ण हैं। प्रत्येक पुराण पाँच प्रकरणों में विभक्त है : सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशचरित। पुराणों के पंचम प्रकरण की इतिहास के विद्यार्थियों को अत्यधिक आवश्यकता रहती है। पुराण का आरम्भ ही उन राजाओं से होता है जो अपने वंश का सम्बन्ध सूर्य और चन्द्र से जोड़ते हैं। वे बहुत से ऐसे राजाओं का वर्णन करते हैं जो ‘मध्यदेश’ में राज्य किया करते थे। ये महाकाव्य युग से लेकर बुद्ध के आगमन तक के काल के बारे में सूचनाएँ देते हैं। उनमें हस्तिनापुर के पुरु वंशी राजाओं और कोशल देश के इक्ष्वाकु राजाओं के नाम हैं। ये हमें शिशुनाग तथा नन्द वंशों के राजाओं से सम्बन्धित विस्तृत सामग्री प्रदान करते हैं। डॉ० वी०ए० स्मिथ (V.A. Smith) ने इस बात को सिद्ध किया है कि “वैष्णव पुराण” और “मत्स्य पुराण” क्रमशः मौर्यवंश और आन्ध्र एवं शिशुनाग वंशों के सम्बन्ध में विश्वसनीय जानकारी प्रदान करते हैं। “वायु पुराण” चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्यकाल की जानकारी देता है। कई पुराणों ने राजाओं की वंशावलि के अन्त में निम्न और बर्बर वंशावलियों का भी ब्यौरा दिया है। ये बर्बर जातियाँ इस प्रकार थीं—आभीर, गर्दभ, शक, यवन, तुषार, हूण इत्यादि। “पुराणों” को आधार मानकर प्राचीन भारत के भूगोल का भी अध्ययन किया जा सकता है। इन पुराणों द्वारा प्राचीन नगरों का भी पता चलता है। पुराण यह भी बतलाते हैं कि विभिन्न नगरों के बीच की दूरी कितनी थी। इस प्रकार पुराणों में वर्णित
जानकारी द्वारा उन नगरों की दूरी अनुमानित की जा सकती है। कहीं-कहीं ऐसा भी वर्णन आता है कि अमुक व्यक्ति अमुक स्थान से प्रातः चला और संध्या समय अमुक स्थान पर पहुँच गया। इस प्रकार के वर्णन से यह ज्ञात करना सुगम हो जाता है कि वर्णित दो स्थानों के बीच की दूरी लगभग कितनी थी। पुराण नगरों, नदियों तथा पर्वतों के प्राचीन नामों को जानने में हमारी सहायता करते हैं। कोलकाता के श्री डे ने इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। यदि धैर्य से कार्य किया जाए तो निश्चय ही उत्तम फल की प्राप्ति होगी। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्राचीन भारत के भौगोलिक ज्ञान से प्राचीन भारत के इतिहास को अधिक गहराई से समझा जा सकता है। श्री ऐन० मुखोपाध्याय (Mukhopadhyaya) का मत है कि “पुराण हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग हैं और धर्मशास्त्र तथा तन्त्रों से मिलकर हिन्दुओं के आज के धार्मिक युग पर गहरा प्रभाव डाल रहे हैं। वेदों का अध्ययन प्राचीन बातों का अध्ययन करने वाले और उपनिषदों का अध्ययन दार्शनिक करते हैं, किन्तु प्रत्येक परम्परानिष्ठ हिन्दू को पुराणों का ज्ञान तो होना ही चाहिए। यह अलग बात है कि यह ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से हो या परम्परागत रूप से, किन्तु इतना अवश्य है कि वह पौराणिक ज्ञान से अपने आचार-विचार या व्यवहार का परिशोधन कर सकता है और सांसारिक तथा आत्मिक कर्तव्यों को निभा सकता है।” डॉ० प्रधान बताता है कि “पुराण हमें प्राचीन भारत का इतिहास बताने का दावा करते हैं। वे “ऋग्वेद” काल से ही राजाओं की वंशावलियाँ बताते हैं। इसके साथ वे यह भी बतलाते हैं कि किन राजाओं ने प्राचीन काल में भारत के
किस-किस भाग पर राज्य किया और कौन-कौन से राज्यों की स्थापना की। कहीं-कहीं राजाओं और ऋषियों के साहसी और असाधारण कार्यों का वर्णन भी मिलता है। युद्धों के पूर्ण विवरण, प्रसिद्ध घटनाएँ तथा बहुमूल्य समकालीन घटनाएँ भी लेखबद्ध हैं।” पुराणों में वर्णित जानकारी को महत्त्व न देना आजकल के विद्वानों की प्रवृत्ति बन गई है। पुराणों में वर्णित वंशावलियों को किन्हीं अत्यन्त तीव्र बुद्धि के व्यक्तियों ने तत्कालीन राजाओं की प्रेरणा पर गढ़ा था। कुछ भी हो, इस धारणा को प्रोत्साहन नहीं दिया जा सकता। पौराणिक सत्य-वक्ता होने का दावा करते हैं और इस प्रकार का झूठ बोलने में उनका कौन-सा स्वार्थ साधन होता था? रही बात उन राजाओं की जिनके बारे में उन्होंने लिखा है, वे तो इन लेखकों से पूर्व ही मर चुके थे। अतः इस धारणा को प्रमाणित नहीं किया जा सकता, क्योंकि कल्पना के आधार पर इतनी लम्बी और विशाल वंशावलियों की सृष्टि बुद्धि-संगत नहीं ठहरती। सूत पौराणिक सामग्री और पुराणों को सुरक्षित रखने के लिए अत्यन्त इच्छुक थे। अतः निश्चय ही पुराण अपने वास्तविक रूप में सुरक्षित और प्रेषित किए गए होंगे। सम्भवतः प्राचीन राजाओं की वंशावलियों का अत्यन्त गम्भीर अध्ययन और विश्लेषण किया गया हो तथा संरक्षकों द्वारा उनकी रक्षा भी की गई हो। पुराणों का अध्ययन करते समय न तो हमें विश्वासशील (credulous) और न ही पक्षपाती (prejudiced) होना चाहिए। हमें बीच का मार्ग अपनाना चाहिए और केवल उसी तथ्य को ग्रहण करना चाहिए जो युक्तिसंगत और उचित हो। स्मिथ का मत है कि “किसी राष्ट्र के प्राचीन काल की खोज करने वाले इतिहासकार को उस काल की साहित्यिक अनुश्रुति को तथ्य रूप में स्वीकार
करना चाहिए, किन्तु तत्कालीन प्रमाणों के सम्मुख साहित्यिक अनुश्रुति को प्रमुखता देना भूल होगी, क्योंकि प्रमाणों द्वारा सिद्ध की हुई घटनाएँ परम्परा से अधिक सबल और ग्राह्य होती हैं।” पौराणिक क्षेत्र में अनुसंधान कार्य बड़े जोरों से हुआ है। पुराणों पर लिखे गए बहुत से निबन्धों के अतिरिक्त पार्जिटर (Pargiter) द्वारा लिखित एन्शिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रैडिशन (Ancient Indian Historical Tradition) और डाइनेस्टीज़ आफ द काली एज (Dynasties of the Kali Age) बड़े ही महत्त्व की सामग्री हैं। पुराणों में कुछ गम्भीर त्रुटियाँ भी हैं। इनमें इतिहास को लोक-वार्ताओं और कल्पित कथाओं से मिला दिया गया है। पौराणिक दन्तकथाएँ धार्मिक तो कही जा सकती हैं, किन्तु उन्हें ऐतिहासिक कदापि नहीं कहा जा सकता। इन कथाओं में जिन राजाओं का उल्लेख मिलता है उनका आधार अधिकतर कल्पना ही है। अन्य किसी विश्वसनीय स्रोत से उनकी पुष्टि नहीं की जा सकती। कहीं-कहीं तो पौराणिक बातें परस्पर मेल नहीं खातीं। डॉ० आल्टेकर (Altekar) राजवंशीय परम्परा के सम्बन्ध में कहते हैं कि इस सूची में जितने भी राजाओं-महाराजाओं के नाम आते हैं, उनके बारे में पुराण यह नहीं बतलाते कि बाद में गद्दी पर बैठने वाला राजा का पहले राजा के साथ क्या सम्बन्ध था। उनके पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में पुराण मौन हैं, किन्तु इतना अवश्य है कि उत्तराधिकारी प्रायः पूर्वाधिकारी के वंश का न होकर उसकी जाति से सम्बन्धित व्यक्ति हुआ करता था।
संस्कृत साहित्य के इतिहास (A History of Sanskrit Literature) में डॉ० कीथ ने इस प्रकार कहा है : “आजकल पुराण जिस रूप में प्राप्त हैं, उस रूप में तो उनमें धार्मिक और सामाजिक अवस्था तथा दरबारी कवियों का वर्णन अधिक मिलता है। अतः इस प्रकार की सामग्री महत्त्वहीन ही समझी जाएगी। नाम और तिथियाँ, जो पुराणों में सूची रूप में दी गई हैं, उन्हें जब अन्य विश्वसनीय तथ्यों के सम्मुख उपस्थित किया जाता है तो वे अत्यन्त त्रुटिपूर्ण दिखाई देती हैं। कारण यह है कि जिस काल में ये वंशावलियाँ तैयार की गई थीं, उस काल के लेखकों का उद्देश्य इतिहास की सामग्री जुटाने की अपेक्षा राजाओं को प्रसन्न करना था। अतः इन पुराणों से किसी काम की बात के मिल सकने की आशा न के बराबर ही की जा सकती है। यह तो ठीक है कि हमने पुराणों को कभी ठीक ढंग से पढ़ने की चेष्टा ही नहीं की, किन्तु प्रश्न तो यह है कि क्या इस ढंग से पुराणों का अध्ययन करने से कोई काम की वस्तु मिल सकने की आशा भी की जा सकती है?” डॉ० कीथ का यह मत स्पष्ट रूप से पक्षपाती है। वास्तव में यदि देखा जाए तो कहना पड़ेगा कि डॉ० कीथ ने उस सामग्री के महान् लाभों की ओर ध्यान नहीं दिया जिसे विद्वानों ने बड़े यत्नों के पश्चात् हमारे सामने उपस्थित किया है। डॉ० कीथ भी पक्षपात के उसी रोग से पीड़ित प्रतीत होते हैं, जो लार्ड मैकाले के समय से चला आ रहा है। अभी भी समय है कि इतिहासकार पक्षपात की मलिनता को धो डालें और इस तुच्छता से ऊपर उठकर उन्हें प्राचीन भारत के इतिहास का स्रोत स्वीकार करें।
बौद्ध साहित्य (Buddhist Literature)
बौद्ध साहित्य से बिम्बसार के सिंहासनारोहण से पूर्व काल की पर्याप्त ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। यह साहित्य कई
ऐसे तथ्यों पर प्रकाश डालता है, जिनकी ब्राह्मण ग्रन्थकारों ने उपेक्षा की है। बौद्ध साहित्य पाली और संस्कृत भाषाओं में मिलता है। पाली का साहित्य निम्न तीन भागों में विभक्त है— (1) ‘विनय पिटक’ (2) ‘सुत्त पिटक’; (3) ‘अभिधम्म पिटक’। ‘विनय पिटक’ में मठ-निवासियों के लिए अनुशासन सम्बन्धी नियम हैं। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित ग्रन्थ आते हैं—‘सुत्त विभाग’, ‘खण्डक’ और ‘परिवार’। ‘सुत्त पिटक’ में बुद्ध के उपदेशों का सार दिया गया है। पिटकों में इस पिटक का स्थान सर्वोच्च है। इसमें दीघ, निकाय, मज्झिम निकाय, संयुत्त निकाय, अंगुत्तर निकाय और खुद्दक निकाय हैं। अभिधम्म पिटक के सात ग्रन्थ हैं। इनमें बौद्ध मत के विचारों पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया गया है। पाली भाषा में भिक्षु-अनुशासन के अतिरिक्त भी पर्याप्त साहित्य की सृष्टि हुई है। इस साहित्य का सर्वोत्तम ग्रन्थ “मिलिन्द पणह” (Milinda Panha) है। इसमें महाराज मिलिन्द के प्रश्न हैं। इसका नामकरण यूनान के राजा मैनाण्डर (Menander) के नाम पर किया गया है। यह ग्रन्थ प्लेटो (Plato) के कथोपकथन से मिलता-जुलता है। इसकी सुन्दर और मनोहारी भाषा ही इसका आकर्षण है। इसमें बौद्ध धर्म की अनेक समस्याओं तथा विवादग्रस्त विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह पाली भाषा का एक सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। पाली भाषा में बौद्ध मत का सर्वश्रेष्ठ तथा योग्य आलोचक, बुद्ध घोष के नाम से विख्यात है। ‘दीपवंश’ (Dipavamsa) और ‘महावंश’ (Mahavamsa) लंका के ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं। “ललितविस्तार” और “वैपुल्य सूत्र” संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। इनमें बौद्धमत सम्बन्धी पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है। “ललितविस्तार” में महात्मा बुद्ध के जीवन को अत्यन्त रोचक
शैली में प्रस्तुत किया गया है। “वैपुल्य सूत्र” के नौ ग्रन्थों में बौद्ध धर्म के नियमों का वर्णन किया गया है। नेति प्रकरण में बुद्ध की शिक्षाएँ हैं। पिटक उपदेश बौद्ध धर्म के चार सत्यों की व्याख्या करता है। बताया जाता है कि ये दोनों ग्रन्थ महाकच्चन ने लिखे हैं। बुद्ध घोष पाँचवीं सदी में श्रीलंका में रहता था। उसने सभी त्रिपटकों (पाली भाषा) पर टीकाएँ लिखीं। वह अपने विसुधिंग (Visuddhimagga) के लिए प्रसिद्ध है। अन्य प्रसिद्ध टीकाकार बुद्धदत्त, आनन्द, धम्मपाल, उपसेन, कश्यप, धम्मश्री, महास्वामी थे। नागार्जुन बौद्ध मत का महान् शिक्षक था। उससे शतसहस्रिका प्रज्ञाप्रमिता और मध्यमिका सूत्र लिखे। आर्यदेव भी महान् लेखक था। असंग महायान सूत्रालंकार का लेखक था। वासुबन्धु अभिधर्म कोष का लेखक था। दिग्नाग, चन्द्रगोमिन और शान्तिदेव महान् विद्वान थे। अश्वघोष बुद्ध चरित्र, सूत्रालंकार, सौन्दर्य आनन्द काव्य तथा महायान श्रद्धोतपद का रचयिता था।
जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्मों का वर्णन किया गया है। बौद्ध मत के अनुयायियों के अनुसार शाक्य वंश में उत्पन्न होने से पूर्व महात्मा बुद्ध को कई जन्म लेने पड़े, किन्तु बुद्ध वे इसी जन्म में ही बन सके। लगभग 549 जातक कथाएँ सम्मिलित रूप में प्रकाशित की गई हैं। अपने युग के जीवन और विचारों के प्रेषक होने के कारण इन कथाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन कथाओं द्वारा ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जो ब्राह्मणों से प्राप्त सामग्री की पूर्ति करते हैं। इन प्रमाणों के प्रकाश में ही उनकी जाँच-पड़ताल की जा सकती है। इन जातकों द्वारा तत्कालीन समाज की धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक अवस्था का चित्र देखने को मिलता है। कहा जाता है कि जातकों की रचना दूसरी या तीसरी सदी ईसा पूर्व में हुई होगी। साँची और भारहुत के स्तूपों पर जातक कथाएँ अंकित हैं। ये स्तूप तृतीय या द्वितीय सदी ईसा पूर्व निर्मित हुए थे। किन्तु बौद्ध परम्परा के अनुसार ये कथाएँ बौद्ध के जन्म से बहुत पहले की हैं। डॉ० विण्टरनिट्ज़ ने लिखा है कि “जातक कथाओं का महत्त्व अमूल्य है। यह केवल इसलिए नहीं कि वे साहित्य और कला का अंश हैं; उनका महत्त्व तृतीय सदी ईसा पूर्व की भारतीय सभ्यता का दिग्दर्शन कराने में है।” जैन साहित्य (Jain Literature)—जैन साहित्य में भी ऐतिहासिक सामग्री पर्याप्त मात्रा में मिलती है। जैन इतिहास के सम्बन्ध में प्रो० जैकोबी (Jacobi) और डॉ० बनारसीदास ने पर्याप्त अनुसन्धान किए हैं। जैनी अपने साहित्य के प्रकाशन पर अत्यधिक धन व्यय कर रहे हैं। अतः आशा की जा सकती है कि इस कार्य की सम्पन्नता पर लाभदायक सामग्री प्राप्त की जा सकेगी। विशाखदत्त-कृत “मुद्राराक्षस” (“Mudrarakshasa” of Visakhadatta)—इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके गुरु चाणक्य का वर्णन है। इस ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख किया गया है कि नन्दवंश का किन कारणों से पतन हुआ और चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने वंश की स्थापना कैसे की। चाणक्य के “अर्थशास्त्र” से भी पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। “अर्थशास्त्र” के रचयिता ने न केवल राज-प्रबन्ध का ही वर्णन किया है, वरन् तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन पर भी प्रकाश डाला है।
पातञ्जलि-प्रणीत “महाभाष्य” तथा पाणिनि-कृत “अष्टाध्यायी”—ये ग्रन्थ संस्कृत भाषा के व्याकरण हैं, किन्तु इनमें भी कहीं-कहीं महाराजाओं, जनतन्त्रों तथा राजनीतिक घटना-चक्रों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन भारत सम्बन्धी हमारे ज्ञान की पूर्ति अनेक साहित्यिक और अन्य लेखों से होती है। हरिषेण समुद्रगुप्त का दरबारी कवि था। इलाहाबाद के स्तम्भ पर अंकित उसकी कविता समुद्रगुप्त के साहसिक और असाधारण कार्यों पर प्रकाश डालती है। कालिदास की “शाकुंतल” और “मेघदूत” नामक कृतियों से भी तत्कालीन सामाजिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। कविता, नाटक और गद्य से प्राप्त होने वाली सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जानकारी से पूरा-पूरा लाभ नहीं उठाया गया है। ऐसा सम्भवतः इसलिए हुआ है कि इन पुस्तकों के रचना काल के विषय में प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। परिणामस्वरूप उनसे सम्बन्धित जानकारी को प्रयोग में लाने से हानि होने की सम्भावना है। महाकवि भास द्वारा लिखित “स्वप्नवासवदत्ता” और “प्रतिज्ञा यौगधरायण” नामक नाटक हमें उज्जैन के राजा चण्ड प्रद्योत कालीन भारत की राजनीतिक स्थिति का पता देते हैं। संस्कृत के सम्भवतः हर्ष द्वारा लिखित “नागानन्द”, “रत्नावली” और “प्रियदर्शिका” नाटक सातवीं सदी ई० के इतिहास का वर्णन करते हैं। कुछ लेखकों ने तो अपने आश्रयदाताओं को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। बाण कवि ने “हर्षचरित” लिखा। यह ग्रन्थ काव्य का अंग होने के साथ-साथ हर्ष का जीवन-दर्शन भी है। यह ग्रन्थ राजनीतिक इतिहास की
दृष्टि से उपयुक्त होने के साथ-साथ सातवीं सदी ई० की धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अवस्था पर प्रकाश डालता है। वाक्पति और बिह्लण ने “गौढ़वहो” और “विक्रमांकदेव चरित” में यशोवर्मा और विक्रमादित्य के असाधारण और साहसिक कार्यों का ब्यौरा दिया है। बंगाल के महाराज रामपाल की जीवन-कथा का पता एक साहित्यिक ग्रन्थ “रामचरित” से चलता है। इनके अतिरिक्त अनेक जीवन-चरित सम्बन्धी कृतियाँ भी उपलब्ध होती हैं और वे इस प्रकार हैं—जयसिंह का “कुमारपाल-चरित”, हेमचन्द्र का “कुमारपाल-चरित”, नयचन्द्र का “हम्मीर काव्य”, पद्मगुप्त का “नवसहसांक-चरित”, बल्लाल का “भोज-प्रबंध”, चन्दबरदाई का “पृथ्वीराज चरित” और एक अज्ञात लेखक द्वारा “पृथ्वीराज-विजय” इत्यादि। यद्यपि उपरोक्त पुस्तकों में बहुमूल्य ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है तो भी इन पुस्तकों को विशुद्ध और प्रामाणिक इतिहास के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि इन ग्रन्थों के लेखकों का उद्देश्य राजाओं की प्रशंसा करना था न कि ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करना। इन ग्रन्थों से राजाओं के जीवन और काल का पूरा पता नहीं चलता। इस सम्बन्ध में इन ग्रन्थों के लेखकों ने स्वयं स्वीकार किया है कि इन ग्रन्थों के उद्देश्य साहित्यिक चातुरी और कल्पना शक्ति का प्रदर्शन करना है न कि इतिहास प्रस्तुत करना।
कल्हण की “राजतरंगिणी” (Rajtarangini of Kalhana)
यह ग्रन्थ 1149-50 ई० में लिखा गया। डॉ० मजूमदार का मत है कि “राजतरंगिणी” ही प्राचीन भारतीय साहित्य का एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसे यथार्थ रूप में प्राचीन भारत का ऐतिहासिक ग्रन्थ कहा जा सकता है। लेखक ने
ऐतिहासिक पुस्तकों और अन्य स्रोतों द्वारा केवल सामग्री को ही जुटाने का यत्न नहीं किया वरन् ग्रन्थ के आरम्भ में इतिहास लेखन के नियमों को समझाने की भी चेष्टा की है। कल्हण के कथनानुसार उसने अपने समय से पूर्व 11 लेखकों की ऐतिहासिक पुस्तकें पढ़ीं और राजाओं के अध्यादेशों का अध्ययन किया। ये अध्यादेश अनुदान सम्बन्धी शिलालेख थे। कल्हण द्वारा लिखित कश्मीर के इतिहास का सातवीं शताब्दी से पूर्व का भाग विश्वसनीय नहीं है। प्राचीन भारतीय लेखकों में कल्हण ही ऐसा लेखक है जिसने कनिष्क के विषय में लिखा है। “राजतरंगिणी” से सातवीं शती से आगे का कश्मीर का विश्वसनीय इतिहास प्राप्त होता है। लेखक ने कालक्रमानुसार प्रत्येक राजा का विस्तृत परिचय दिया है। अपनी पुस्तक में वह ज्यों-ज्यों अपने समय के निकट आता जाता है इतिहास की मात्रा उसके ग्रन्थ में बढ़ती जाती है और वह उस समय का पूर्ण चित्र प्रस्तुत कर देता है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् जोणराज और अन्य लेखकों ने उसके कार्य को जारी रखा। कल्हण के अच्छी सरकार के बारे में निश्चित विचार थे। उसका आदर्श शक्तिशाली राजा था जो अपने अधीनस्थों पर कठोर नियन्त्रण रखे लेकिन अपनी जनता के प्रति दयावान हो और उसकी भावनाओं का सम्मान करे। उसे अपने सलाहकारों को सावधानी से चुनना था और उनके परामर्श की ओर ध्यान देना था। अनेक स्थानों पर कल्हण ने दारों (Damaras) अर्थात् छोटे सामन्तों की निन्दा की है जिन्होंने कश्मीर में अराजकता तथा मुसीबतें उत्पन्न कीं। कल्हण नौकरशाही का कटु आलोचक था। उसने उसके बारे में लिखा है : “केकड़ा अपने पिता को मार डालता है, दीमक अपनी माँ को खा जाती है, किन्तु कृतघ्न कायस्थ (सरकारी कर्मचारी) शक्तिशाली होने पर सबका नाश कर देता है।” कई स्थलों पर अपने देश और वासियों के प्रति निराशा व्यक्त करता है : “यह भूमि पवित्र नारी होने के बाद ढीठ के हाथों पहुँचकर वेश्या बन गई है। इसके बाद में केवल शक्तिहीन व्यक्ति षडयन्त्र के द्वारा सफलता प्राप्त करने की इच्छा करेगा।” यहाँ गुजरात के ऐतिहासिक ग्रन्थों को देना उचित प्रतीत होता है। इस संबंध में लिखे गए प्रसिद्ध ग्रन्थ इस प्रकार हैं : सोमेश्वर-प्रणीत “रासमाला” और “कीर्ति कौमुदी” अरिसिंह द्वारा लिखित “सुकृत संकीर्तन”, मेरुतुंग द्वारा लिखित “प्रबंध चिंतामणि”, राजशेखर द्वारा लिखित “प्रबंध कोश”, जयसिंह द्वारा लिखित “हम्मीर मद-मर्दन”, इत्यादि। ये ग्रन्थ कथाओं, ऐतिहासिक उप-कथाओं के कोश हैं। द्रविड़ भाषा में ईसा की दूसरी सदी के बाद के भारत के राजनीतिक इतिहास का अनेक बार उल्लेख है। दूसरी और तीसरी सदी के तमिल संगम ग्रन्थों में दक्षिण भारतीय संस्कृति के बारे में पर्याप्त लाभकारी जानकारी मिलती है। कन्नड़ और तेलुगू में ऐसी अनेक कविताएँ हैं जिनसे दक्षिण के इतिहास के विषय में लाभकारी जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार नेपाल के स्थानीय इतिहास भी हैं, किन्तु उनके तथ्यों को ठीक प्रकार एकत्रित नहीं किया गया है।
(2) पुरातत्त्व (Archaeology)
इस विद्या ने प्राचीन भारत के इतिहास को जुटाने में पर्याप्त योग दिया है। अतः इसके महत्त्व को किसी प्रकार कम नहीं किया जा सकता। भारतीय पुरातत्त्व विभाग को अस्तित्व में आए अभी कुछ ही वर्ष हुए हैं, किन्तु इस अल्प काल में इस विद्या ने जो उन्नति की है, वह निश्चय ही प्रशंसनीय है। इस विद्या का आरम्भ भले ही यूरोपियन लोगों द्वारा हुआ हो, किन्तु अब भारतीय विद्वान भी इस दिशा में किसी से पीछे नहीं हैं। भारतीय प्राचीन वस्तुओं के अध्ययन के कार्य को सर विलियम जोन्स ने शुरू किया था। इन्हीं सर विलियम जोन्स ने 1774 में एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल की स्थापना की थी। विभिन्न शिलालेखों को भारी संख्या में एकत्रित किया। किन्तु लिपि का ज्ञान न होने के कारण उन्हें पढ़ा न जा सका। जोन्स प्रिंसैप (Jones Prinsep) द्वारा 1837 में ब्राह्मी (Brahmi) लिपि के अनुसंधान (decipherment) के उपरान्त इस समस्या का समाधान कर दिया गया। इस खोज के पश्चात् पढ़ने का कार्य सुगम बन गया और परिणामस्वरूप विद्वानों ने इस दिशा में भारी कार्य किया है। फ़रगुसन, कन्निंघम, डॉ० राजेन्द्र लाल मित्र, डॉ० भाऊ दाजी इत्यादि ने इस दिशा में काम किया है। इस दिशा में सर्वाधिक सहयोग जनरल सर कन्निंघम का है, जो 1862 में पुरातत्त्व सर्वेक्षक के पद पर नियुक्त हुए थे। उन्होंने व्यक्तिगत अनुसंधान के आधार पर प्राचीन भारत की भूगोल-सम्बन्धी जानकारी प्रस्तुत की है। उन्होंने पर्याप्त मात्रा में भारतीय सिक्कों को एकत्रित किया है। गया, भारहुत, साञ्ची, सारनाथ, तक्षशिला जैसे खदानों पर खुदाई का काम आरम्भ किया गया था। लार्ड कर्जन ने पुरातत्त्व विभाग की स्थापना की और डॉ० मार्शल उसमें पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक के पद पर नियुक्त किए गए। डॉ० वॉगल, डॉ० स्टाइन (Stein), डॉ० ब्लोच और डॉ० स्पूनर सहायक विद्वानों के रूप में नियुक्त किए गए थे। डॉ० मार्शल के निर्देशन और निरीक्षण के अन्तर्गत तक्षशिला की 25 वर्गमील तक फैली भूमि की खुदाई की गयी
और परिणामस्वरूप अनेक उपयोगी जानकारियाँ प्राप्त हुईं। डॉ० स्पूनर द्वारा पाटलिपुत्र के प्राचीन नगर की खुदाई की गई किन्तु जल-निस्सरण के कारण अधिक जानकारी प्राप्त न हो सकी। डॉ० स्पूनर ने नालन्दा विश्वविद्यालय की बुद्ध सम्बन्धित भूमि का खनन कराया और परिणामस्वरूप विशेष जानकारी प्राप्त हो सकी। सन् 1922-23 में सिन्ध में डॉ० आर०डी० बनर्जी ने मोहनजोदाड़ो का खनन कार्य प्रारम्भ कराया था। ऐसा ही कार्य हड़प्पा (Harappa) में भी किया गया। इन दोनों स्थानों से प्राप्त सामग्रियाँ एकत्र की गईं और सर जॉन मार्शल ने सिंधु घाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization) पर एक विशाल ग्रन्थ की रचना की। ऑरेल स्टाइन (Aurel Stein) ने बलोचिस्तान, कश्मीर और चीनी तुर्किस्तान में इस दिशा में पर्याप्त कार्य किया। एन०जी० मजूमदार तथा डॉ० मैके (Mackay) ने भी सिन्धु घाटी की सभ्यता के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। आज भी भारत के विभिन्न भागों में पुराविद्या सम्बन्धी कार्य किये जा रहे हैं।
(क) शिला-लेख (Inscriptions)
पुरातत्त्व शीर्षक के अन्तर्गत शिलालेखों5, मुद्राओं तथा स्मारकों द्वारा प्राप्त जानकारी का वर्णन किया जा सकता है। शिलालेख ऐतिहासिक खोज में बड़े महत्त्व की वस्तु हैं। वे धातुओं और पत्थरों पर अंकित हैं। अतः उनकी प्रामाणिकता में सन्देह नहीं किया जा सकता। इन पर अंकित जानकारी को बिना हिचकिचाहट के प्रयोग में लाया जा सकता है। पुस्तकों में ज्ञात तथा अज्ञात लेखकों द्वारा जोड़े गए क्षेपकों के कारण सन्देह की सम्भावना बनी रहती है। अतः स्पष्ट है कि शिलालेखों की प्रामाणिकता में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता। इन शिलालेखों से तत्कालीन लेखन शैली का पता
चलता है। उनके स्वरूप और आकार-प्रकार को देख कर उनके काल का भी अनुमान लगाया जा सकता है। उनकी स्थिति से भी कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यद्यपि अब शिलालेखों को पढ़ने और समझने की कठिनाइयों को दूर कर लिया गया है किन्तु सिंधु घाटी की लिपि अभी तक रहस्य का विषय बनी हुई है। शिलालेखों को विषय के आधार पर अनेक शीर्षकों में बाँटा जा सकता है; व्यापारिक, मायावी, धार्मिक एवं उपदेशात्मक, प्रशासनिक, प्रशंसात्मक, मन्नत लेख अथवा समर्पणीय, भेंट सम्बन्धी, अभिनन्दनीय तथा साहित्यिक। व्यापारिक शिलालेखों के नमूने सिंधु घाटी की छापों पर देखे जा सकते हैं। इनमें से कुछ छापों का व्यवहार व्यापारिक गाँठों और मिट्टी के बर्तनों पर मोहर लगाने के रूप में किया गया होगा। “छापों पर के छोटे-छोटे शिलालेखों पर तो केवल उसके स्वामी का नाम ही अंकित है, किन्तु इनसे बड़ी छापों के शिलालेखों पर पदवियों सहित स्वामी का नाम अंकित है।” सम्भवतः इन छापों का प्रयोग समुद्र द्वारा विदेशी व्यापार के लिए किया जाता था। निगमों (Nigamas) और श्रेणियों (Srenis) को अपनी मुद्राएँ बनाने की असाधारण शक्ति प्राप्त थी। अतः निश्चय ही उन्होंने ही व्यापारिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए इन छापों का प्रयोग किया होगा। यह तो ठीक है कि नष्ट होने वाली वस्तुओं पर दिए गए उनके विवरण घिस-घिसाकर अब नष्ट हो चुके हैं। कुछ प्रामाणिक संकेतों द्वारा यह कहा जा सकता है कि इन छापों का प्रयोग व्यापार के लिए किया जाता था और यह सूचना कुमारगुप्त और बन्धुवर्मा के समय मंदसौर शिलालेख से प्राप्त होती है।
मायावी शिलालेखों में मन्त्र इत्यादि लिखे हुए हैं। इनके नमूनों को सिंधु घाटी की मुद्राओं में देखा जा सकता है। “पकी हुई कच्ची मिट्टी और मिट्टी के बर्तनों पर कुछ छापें लगी हुई हैं। वे भी कुछ सीमा तक यन्त्रादि ही नजर आते हैं। कुछ मोहर लगी हुई पट्टियाँ (tablets) हैं। इन्हें बीचोंबीच छेदा गया है। सम्भवतः कपड़ों आदि के साथ लटकाने के लिए छेद किए गए हैं। इसके अतिरिक्त जिन पट्टियों के एक ओर मोहर अंकित है, उनका पिछला भाग बिल्कुल साफ है। इससे स्पष्ट है कि ये किसी चीज के साथ लगाई नहीं गईं और इसीलिए उनका प्रयोग व्यापार के लिए नहीं किया गया होगा। कुछ पदार्थ ऐसे भी हैं जिनके कई ओर मोहरें लगी हैं, इन्हें केवल तावीज़ और यन्त्र इत्यादि के रूप में प्रयोग में लाया गया होगा, इसके अतिरिक्त वे किसी अन्य कार्य में नहीं लाई जा सकती होंगी।” इन छापों के अर्थ को अभी तक स्पष्ट रूप से पढ़ा नहीं जा सका। अतः जब तक वे पढ़ी न जा सकें तब तब उनके विषय की थाह पाना कठिन है। इन पर देवताओं के नाम अंकित हैं और उन देवताओं को जानवरों की आकृति में पेश किया गया है। इन तावीज़ों पर हिरण, भैंसा, ब्राह्मी बैल, हाथी, बकरी, खरगोश, बन्दर, मानव, छोटे सींगों वाला बैल और शेर आदि पशुओं के चित्र हैं। कुछ देवताओं को चाँद, यमराज, शंकर, इन्द्र, ब्रह्मा और दुर्गा के रूप में अंकित किया गया है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यन्त्र और मन्त्रों को धातु और भोजपत्र आदि पर लिखा गया है। धार्मिक और उपदेशात्मक शिलालेखों में धार्मिक और नैतिक विवरण ही देखने को मिलते हैं। सिंधु घाटी की कुछ मोहरों और पट्टियों को पूजा के लिए प्रयोग में लाया जाता था, तावीज़ों के रूप में उनका व्यवहार नहीं होता था।
अशोककालीन धार्मिक और उपदेशात्मक शिलालेख अपने ढंग के उत्तम उदाहरण हैं। अशोक के उपदेश (Edicts) ‘धम्म लिपि’ के नाम से पुकारे जाते हैं। अशोक के आदेश भी प्रशासनिक शिलालेखों के नमूने हैं। उसके शिलालेखों में से एक शिलालेख का उदाहरण इस प्रकार है—“धम्म के प्रचार और अन्य कार्यों के लिए मेरे राज्य में प्रति पांच वर्षों में युक्त, रज्जुक और प्रादेशिक भ्रमण के लिए निकला करेंगे।” सोहगौर के तीसरी शती ईसा पूर्व का ताम्र लेख प्रशासनिक शिलालेखों का अच्छा उदाहरण है। जूनागढ़ की चट्टान पर अंकित रुद्रदमन प्रथम का शिलालेख भी अच्छी खासी प्रशासनिक सामग्री प्रदान करता है। उत्तर और दक्षिण से पर्याप्त संख्या में प्राप्त ताम्र-पत्रों पर अंकित लेख अधिकाधिक संख्या में प्रशासकीय जानकारी प्रस्तुत करते हैं और इन लेखों द्वारा प्राप्त जानकारी बड़े ही महत्त्व की वस्तु है। हर्ष के बाँसखेड़ा के ताम्र-पत्र अभिलेख भी इसी पक्ष में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। प्रशंसात्मक शिलालेख राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
इनमें प्रायः निम्नलिखित बातें हैं—
राजा की वंशावली, उनका नाम, राजा का पूर्व चरित्र, तत्कालीन राज्य जिनसे उसका युद्ध हुआ, अन्तर्राज्यीय सम्बन्ध, राज्य प्रणाली, राजनीतिक आदर्श, राजा की व्यक्तिगत योग्यता, उसकी संरक्षकता, उसकी दानशीलता और उदारता, उपमा सम्बन्धी पौराणिक संकेत। इन शिलालेखों में लेखकों द्वारा राजाओं की बढ़ा-चढ़ा कर प्रशंसा करने की मनोवृत्ति अनुचित है।
प्रशंसा सम्बन्धी शिलालेखों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है—विशुद्ध प्रशस्तियाँ और अन्य प्रकारों से युक्त प्रशस्तियाँ। अशोक के आदेश अपनी ही तरह के हैं। कलिंग के राजा खारवेल का हाथीगुफा शिलालेख प्रथम श्रेणी में आता है। इसमें विशुद्ध प्रशंसा है। इसमें खारवेल के साहसी कार्यों का ब्यौरा कालक्रमानुसार मिलता है। समुद्रगुप्त का इलाहाबाद स्तम्भ-लेख भी इसी श्रेणी में आता है। प्रशंसा के साथ-साथ अन्य सामग्री देने वाले शिलालेखों की संख्या अधिक है। प्रायः प्रत्येक प्रलेख में राजा और उसके पूर्वजों के सम्बन्ध में बहुत कुछ मिलता है। उषावदात का नासिक गुफ़ा शिलालेख, रुद्रदमन प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख, गौतमी बालश्री का नासिक गुफ़ा शिलोलेख, चन्द्र का महरौली लोहस्तम्भ-लेख, स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ शिलालेख, स्कन्दगुप्त का भितारी स्थित पाषाण स्तम्भ-लेख, यशोधर्मन का मन्दसौर पाषाण स्तम्भ-लेख, ईषान वर्मा के शिलालेख, पुलकेशिन द्वितीय के समय का ऐहोल शिलालेख, शान्ति वर्मा के समय का तालागुन्द शिलालेख, वीरपुरुषदत्त के नागार्जुनीकोण्डा के शिलालेख, कुमारगुप्त द्वितीय तथा बन्धुवर्मा के समय का मन्दसौर शिलालेख, इत्यादि हमारे ज्ञान में वृद्धि करते हैं। हमारे पास पर्याप्त संख्या में मन्नत शिलालेख हैं। जो पट्टियाँ सिन्धु घाटी से प्राप्त की गई हैं, हो सकता है कि उन पर इस श्रेणी के शिलालेख हों। पिपरावा शिलालेख महात्मा बुद्ध की स्मारक मंजूषा है। हैलियोडोरस का बेसनगर गरुड़ स्तम्भ शिलालेख (Besnagar Garuda Pillar Inscription of Heliodoros) भी इसी श्रेणी का है। कई एक समर्पणीय शिलालेख मूर्तियों और मन्दिरों की स्थापना का परिचय देते हैं। इस सम्बन्ध में कुमारगुप्त द्वितीय
और बन्धुवर्मा के समय के मन्दसोर शिलालेख, स्कन्दगुप्त के भितारी स्तम्भ शिलालेख और पुलकेशिन् द्वितीय के समय के ऐहोल शिलालेखों का उल्लेख करना उपयुक्त प्रतीत होता है। उपहार सम्बन्धी शिलालेखों की संख्या अत्यधिक है। राजा और प्रजा दोनों को इस सम्बन्ध में पर्याप्त अवसर प्राप्त हुए हैं। कुछ शिलालेख गुफ़ाओं और अन्य भवनों को साधु-सन्तों के निवासार्थ दान में दिए जाने का संकेत करते हैं। कुछ शिलालेख स्थायी निधि के रूप में दान का हवाला देते हैं। इस धन से गरीबों और ब्राह्मणों का निर्वाह होता था और मन्दिरों में दीपक जलाये जाते थे। कुछ शिलालेखों में मन्दिरों, मठों, विद्यालयों और ब्राह्मणों को भूमि तथा गाँव का दान देना अंकित है। अभिनन्दनीय शिलालेख जन्म-मरण तथा अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पता देते हैं। अशोक का रुभ्मिणदेई शिलालेख इस प्रकार है—“देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी सम्राट् बौद्ध धर्म ग्रहण करने के अनेक वर्ष पश्चात् स्वयं यहाँ आया और उसने पूजा की। चूँकि शाक्य मुनि बुद्ध ने यहाँ जन्म लिया था, अतः वहाँ उसने पत्थर की एक बड़ी दीवार और स्तम्भ बनवाया।” स्मारकीय शिलालेखों की एक लम्बी शृंखला कोल्हापुर के शीलहर राजा, कल्याणी के चालुक्य राजा और राष्ट्रकूटों तथा यादवों आदि का पता देती है। कुछ शिलालेखों का उद्देश्य साहित्यिक प्रतीत होता है। इस प्रकार के शिलालेखों में कविता और नाटक सम्बन्धी ब्यौरा मिलता है। उत्तर प्रदेश में कुशीनगर के महानिर्वाण स्तूप से एक ताम्र-पत्र प्राप्त किया गया है, जिस पर तेरह पंक्तियाँ लिखी हैं और बुद्ध के उदान सुत्त (Udana-Sutta of Buddha) का वर्णन है।
पत्थर और धातु के अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी लेख मिले हैं। अशोक बतलाता है कि उसने अपने आदेशों को इसलिए पत्थरों और शिलाओं में अंकित कराया कि वे देर तक बने रह सकें। पत्थर पर लिखे लेख चट्टानों स्तम्भों, शिलाओं, मूर्तियों के आधारों, मूर्तियों के पृष्ठ भागों, कलशों के किनारों और ढक्कनों, मंजूषाओं, त्रिपार्श्व स्फटिकों, मन्दिरों की दीवारों, स्तम्भाधार, गुफ़ाओं इत्यादि पर पाए जाते हैं। लेखों में प्रायः ताम्रधातु का ही प्रयोग होता था। ताँबे के पत्रों पर लिखे गए शिलालेखों को ताम्र पट्ट, ताम्र-पत्र, ताम्र-शासन, शासन-पत्र आदि कहा जाता था। कहीं-कहीं विषय के अनुसार इन्हें दान-पत्र भी कहा जाता था। यह ध्यान देने की बात है कि भूमि-अनुदान प्रायः ताम्र-पत्रों पर ही अंकित किए जाते थे और उन्हें दान लेने वाले को दे दिया जाता था ताकि ये अधिकार-पत्र की आवश्यकता को पूरा करें। फ़ाह्यान (Fa-hien) कहता है कि उसने बहुत से बौद्ध मठों में ऐसे ताम्र-पत्र पाए जिनमें भूमि-अनुदान का उल्लेख था। उनमें से कुछ तो बुद्ध के समय के थे। सोहगौर के मौर्यकालीन ताम्र-पत्रों का अनुसन्धान फ़ाह्यान के कथन का समर्थन करता है। ह्यून सांग (Hiuen Tsang) कहता है कि कनिष्क ने एक बौद्ध सभा बुलाई थी और इस सभा ने तीन भाष्य तैयार किए थे जिन्हें ताम्र-पत्रों पर अंकित किया गया था। इन ताम्र-पत्रों को पत्थर की मञ्जूषाओं में रखकर उन पर स्तूप बना दिए गए थे। यह भी कहा जाता है कि सायण का वैदिक भाष्य भी ताम्र-पत्रों पर अंकित किया गया था। ब्रिटिश म्यूज़ियम में कुछ ऐसी पुस्तकों के नमूने भी मिलते हैं, जिनके पन्ने कागज के न होकर ताँबे के हैं। छठी शती ई० तक ताम्र-पत्रों का प्रयोग लेखन कार्य के लिए प्रायः कम किया जाता था किन्तु आगामी
छः शतियों में फिर से इनका प्रयोग होने लगा। ये ताम्र-पत्र मोटाई और आकार में विविध प्रकार के थे। इनमें से कुछ तो इतने पतले थे कि उन्हें सुगमतापूर्वक मोड़ा जा सकता था और कुछ बहुत ही मोटे थे। इन ताम्र-पत्रों का आकार इन पर लिखे विषय के अनुसार छोटा-बड़ा हुआ करता था। कभी-कभी प्रलेखों को एक ताम्र-पत्र पर अंकित न करके कई-कई पत्रों पर अंकित किया जाता था। ऐसी अवस्था में छोटे-छोटे छल्लों की सहायता से उन ताम्र-पत्रों को जोड़कर उन्हें एक प्रकार से पुस्तक का रूप दे दिया जाता था जो आसानी से खुल सकती थी। इन ताम्र-पत्रों को आस-पास पर्याप्त हाशिया छोड़ दिया जाता था।
(ख) मुद्रा विज्ञान (Numismatics)
भारतीय मुद्राओं का अध्ययन भी प्राचीन भारत के इतिहास पर प्रकाश डालता है। न्यूमिस्मैटिक सोसाइटी ऑफ इण्डिया इस दिशा में बहुत उपयोगी कार्य कर रही है। हमारे पास भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त विविध प्रकार की मुद्राएँ एकत्रित हैं, जो भारत के प्राचीन इतिहास को समझने में पर्याप्त सहायता देती हैं। ये मुद्राएँ सोना, चाँदी और ताँबा आदि धातुओं की हैं। मुद्राएँ देश के इतिहास के निर्माण में हमारी सहायता करती हैं। ये हमें शासन का परिचय देकर यह बतलाती हैं कि उसने कब-कब भारत के किस-किस भाग में राज्य किया। केवल इन मुद्राओं से कई बार हमें विभिन्न राजाओं के अस्तित्व का भी पता चलता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन मुद्राओं के अभाव में वे राजा अज्ञात ही रह जाते। इन मुद्राओं का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इनसे प्राप्त जानकारी के आधार पर इतिहास अन्य स्रोतों उदाहरणार्थ पुराणों द्वारा बताए गए ब्यौरों की प्रामाणिकता का पता चलता है। कालक्रम का निर्णय करने
में भी ये हमारी सहायता करती हैं। मुद्राएँ बताती हैं कि किस वर्ष में उन्हें बनाया गया। मुद्राओं की प्राप्ति से यह जाना जा सकता है कि किस राजा ने कब तक राज्य किया। इनसे राजा के गद्दी पर बैठने और मृत्यु की तिथि का अनुमान लगाया जा सकता है। मुद्राओं ने हमें समुद्रगुप्त की ठीक तिथियाँ जानने में सहायता दी है। मुद्राओं के विभिन्न प्राप्ति-स्थानों से उनसे सम्बन्धित राजा के राज्य-विस्तार का पता चलता है। भारत में पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होने वाली रोमन मुद्राओं से पता चलता है कि किसी समय में भारत और रोमन साम्राज्य के बीच पर्याप्त मात्रा में व्यापार होता था। इनसे भारतीयों की आर्थिक स्थिति तथा उनके समुद्र पार जाने का पता चलता है। इन मुद्राओं पर राजाओं के चित्र भी अंकित हैं। उनके आधार पर उन राजाओं की सिर की पोशाक के बारे में धारणाएँ बनाई जा सकती हैं। कभी-कभी तो इन मुद्राओं से राजाओं के मनोरंजन और उनके प्रिय व्यापारों का भी पता चलता है। इन मुद्राओं से देश की आर्थिक स्थिति आँकी जा सकती है। यदि लोग सोने और चाँदी की मुद्राओं का व्यवहार करते हैं तो निश्चय ही उनकी आर्थिक अवस्था अच्छी होगी, किन्तु यदि इसके विपरीत केवल ताँबे की मुद्राओं का व्यवहार करते हैं या सोने और चाँदी की अपेक्षा ताँबे की मुद्राएँ उनके पास अधिक है तो इससे स्पष्ट है कि उनकी आर्थिक अवस्था बहुत अच्छी नहीं थी। किसी स्थान की मुद्राओं के मूल्य में कमी होने से हमें इस बात का संकेत भी मिलता है कि देश असाधारण स्थिति में से गुजर रहा था। भारत पर हूणों के आक्रमण के समय गुप्त वंश की मुद्राएँ उत्कर्ष पर न थीं। गुप्तकालीन मुद्राओं पर अंकित चिन्हों से पता चलता है कि हिन्दू धर्म के प्रति उनमें कितना उत्साह था। मुद्राओं से हमें प्राचीन भारत के इतिहास के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध होती है और इस प्रामाणिकता को किसी भी प्रकार
झुठलाने की सम्भावना नहीं। मुद्राओं का निर्माण राजाओं या श्रेणी द्वारा होता था। अतः यह विचार व्यर्थ है कि लोगों को धोखा देने के लिए इन्हें गढ़ा गया था। प्राचीन भारत की मुद्राओं पर पौराणिक कथाओं के स्थान पर चित्र या संकेत हैं। कभी-कभी इन सिक्कों को साँचों में ढाला जाता था। ऐसे अवसर बहुत कम होते थे जब धातुओं के टुकड़ों पर चिन्हों को छापा जाता था। इसे ही उनकी प्रामाणिकता तथा मूल्य की गारण्टी माना जाता था। पौराणिक कथाओं के अंकित न होने के कारण इन मुद्राओं से अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। भारत पर यूनान के आक्रमण के पश्चात् मुद्राओं पर राजाओं का नाम भी अंकित किया जाने लगा। इण्डो-बैक्ट्रियन (Indo-Bactrian) राजाओं ने अत्यधिक संख्या में मुद्राएँ जारी कीं। पंजाब और उत्तर-पश्चिमी सीमांत की भूमि इन्हीं राजाओं के अधीन थी। इन मुद्राओं पर उत्कृष्ट कला दिखाई गई है और इनका भारतीय मुद्राओं पर अत्यधिक मात्रा में प्रभाव पड़ा है। भारतीयों ने मुद्रा पर राजा का चित्र और नाम का नकल करना आरम्भ किया। यूनान की मुद्राओं से पता चलता है कि यूनान के लगभग 30 राजाओं और रानियों ने भारत में राज्य किया। प्राचीन लेखक इनमें चार या पाँच को ही मान्यता प्रदान करते हैं। यदि ये मुद्राएँ न प्राप्त होतीं तो इन राजाओं से हम सर्वधा अपरिचित रहते। सिथियनों और पार्थियनों की मुद्राएँ इतनी उच्चकोटि की नहीं हैं फिर भी उनसे पर्याप्त ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध होती है। इन मुद्राओं के आधार पर अनेक राजाओं के इतिहास की एक हलकी-सी जानकारी प्राप्त की गई है। इनके बिना तो इतना भी पता न चलता। शक युग में सिथियनों का एक दल गुजरात और काठियावाड़ में आकर बस गया था। इस दल के लोगों ने मुद्राएँ बनाईं। इन मुद्राओं पर राजा और उसके पिता का नाम लिखा मिलता है। इन मुद्राओं के आधार पर पश्चिमी क्षत्रपों के तीन सौ वर्ष का इतिहास ज्ञात किया गया है। कुषाणों ने भी पर्याप्त मात्रा में मुद्राओं का निर्माण किया था। पाञ्चाल प्रदेश के मीर्त राजाओं तथा मालव और यौधेय वंशी राजाओं के अस्तित्व का ज्ञान भी इन्हीं मुद्राओं से ही प्राप्त होता है। शातवाहन राजाओं की मुद्राएँ पुराणों द्वारा वर्णित सामग्री का समर्थन करती हैं। गुप्त वंश की मुद्राएँ भी उपयोगी जानकारी प्रदान करती हैं। समुद्रगुप्त की मुद्राओं का इस क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके द्वारा इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इनका वर्णन उपयुक्त स्थान पर किया जाएगा। गुप्त काल के पश्चात् भारतीय मुद्राओं से अधिक ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। वी०ए० स्मिथ (V.A. Smith) और रैप्सन (Rapson) ने लिखा है कि छापी गई मुद्राएँ अपनी मौन भाषा में यह बतलाती हैं कि उनको गढ़ने वाले व्यक्ति अधिकारी नहीं थे। स्मिथ का विचार है कि मुद्राएँ शिल्पसंघ या सुनारों द्वारा निर्मित होती थीं; इतनी बात अवश्य थी कि इन लोगों को मुद्राओं के निर्माण के लिए राजाओं से आज्ञा लेनी पड़ती थी। मुद्राओं का मुख्य भाग मुद्रा-निर्माताओं द्वारा अंकित होता था, किन्तु उसके पृष्ठ भाग पर राजा या नियन्त्रक के हस्ताक्षर होते थे। रैप्सन का कहना है कि मुद्रा के मुख्य भाग पर सराफ़ का निशान रहता था, और उसके पृष्ठ भाग पर उस स्थान का निशान रहता था जहाँ से वह मुद्रा बनकर निकलती थी। किन्तु आधुनिक खोज ने यह सिद्ध कर दिया है कि अंकित मुद्राएँ सार्वजनिक प्राधिकारी (public authority) द्वारा तैयार होती थीं। इस प्रकार की मुद्राएँ पाटलिपुत्र में पाई गई हैं। डॉ०
जायसवाल का अनुमान है कि ये मुद्राएँ चन्द्रगुप्त मौर्य के काल की हैं। सरकारी अजायबघरों में असंख्य मुद्राएँ आजकल प्राप्य हैं। कुछ म्युनिसिपल अजायबघर भी इस दिशा में अग्रसर हैं। कुछ लोगों ने निजी तौर पर भी विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का संग्रह किया है। इन सबका गहन अध्ययन अतिरिक्त प्रमाणों का स्रोत है।
(ग) स्मारक (Monuments)
पत्थर, धातु और मिट्टी (terra-cotta) की मूर्तियाँ तथा प्रसाधन सामग्री और आभूषणों के टुकड़े तथा मिट्टी के बर्तन इत्यादि से प्राचीन विश्वसनीय जानकारी प्राप्त होती है। हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो तथा तक्षशिला की भूमि की खुदाई से ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आए हैं, जो पहले अन्धकार में थे। इस खुदाई ने प्राचीन भारत के इतिहास का रूप ही बदल दिया है। उदाहरणार्थ सिंधु घाटी की खुदाई के पश्चात् ही यह कहा जाने लगा है कि आर्यों के आगमन से पूर्व भी भारत में सभ्यता थी। तक्षशिला की खुदाई से कुषाणों से सम्बन्धित जानकारी प्रकाश में आयी है। वहाँ की मूर्ति-कला का अध्ययन करने से गान्धार कला की जानकारी प्राप्त होती है। पाटलिपुत्र के प्राचीन स्थानों की खुदाई से मौर्यकालीन राजधानी पर प्रकाश पड़ता है। कम्बोडिया के अंकोरवात तथा जावा के बाराबोडूर नामक स्थानों से आज भी इस बात का प्रमाण मिलता है कि प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति का प्रसार कभी वहाँ हुआ था। देवगढ़ (झाँसी) और भीतरगाँव (कानपुर) दोनों गुप्तकालीन कला पर प्रकाश डालते हैं। सारनाथ की खुदाई से हमारी बौद्ध धर्म और अशोक सम्बन्धी जानकारी बढ़ी है। स्टाइन की देखरेख में हुई चीनी तुर्किस्तान और बलोचिस्तान की खुदाइयों से पता चलता है कि इन स्थानों से भारत का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था। आशा की जाती है कि पुराविद्या द्वारा भविष्य में भी इतिहास सम्बन्धी अच्छी जानकारी प्राप्त हो सकेगी।
(3) विदेशी विवरण (Foreign Accounts)
विदेशी लेखकों से भी हमें उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है। हेरोडोटस (Herodotus) और टेसियस (Ctesias) ने ईरानी स्रोतों से जानकारी प्राप्त की थी। हेरोडोटस ने अपने इतिहास में ईरानी और यूनानी आक्रमणों तथा इण्डो-ईरानी सम्बन्धों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। वह हमें अपने समय के उत्तर-पश्चिमी भारत की जानकारी तथा राजनीतिक स्थिति का ज्ञान प्रदान करता है। उसका मत है कि उत्तरी भारत का भू-क्षेत्र डैरियस (Darius) के साम्राज्य का अंग था। यह भू-क्षेत्र उसके साम्राज्य का बीसवाँ प्रांत था। टेसियस (Ctesias) द्वारा लिखित विवरण कल्पित है। अरियन (Arrian) ने सिकन्दर द्वारा भारत पर किए गए आक्रमण का विस्तृत विवरण दिया है। यह विवरण सिकन्दर की नौसेना के अध्यक्ष नीरकस (Nearchos) की प्रामाणिकता पर निर्भर है। स्काईलैक्स (Skylax) ने एक पुस्तक लिखी। उसने सिन्ध और ईरान की खाड़ी की यात्रा का विस्तृत विवरण दिया है। इस यात्रा के विवरण के प्रसंगवश उसने भारत की घटनाओं की पर्याप्त जानकारी प्रदान की है। ऑनेसिक्रिटस (Onesicritus) ने भी अभियान में भाग लिया था। उसने भारत के सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी थी। किन्तु स्ट्रैबो (Strabo) ने उसे सत्य नहीं माना। विभिन्न यूनानी सम्राटों ने मेगस्थनीज़, डीमाकस और डॉयनीसियस नामक राजदूतों को भारत भेजा था। मेगस्थनीज़ को सैल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा था। उसने
भारत के सम्बन्ध में “इण्डिका” नाम की पुस्तक लिखी थी। वास्तविक पुस्तक तो लुप्त हो चुकी है, किन्तु बाद में आने वाले लेखकों ने अपनी पुस्तकों में “इण्डिका” के जो अंश प्रस्तुत किए हैं उनसे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मेगस्थनीज़ ने भारत के सम्बन्ध में क्या कुछ लिखा था। उन प्राप्त उद्धरणों का मैक्रिण्डल ने अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया है। वे भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। कुछ विषय ऐसे हैं जिनके बारे में मेगस्थनीज़ ने विस्तृत जानकारी प्रदान की है। डीमाकस का सीरिया के दरबार से बिन्दुसार या अमिट्रेकेट्स (Amitrachates) के दरबार में भेजा गया था। डॉयनीसीयस को मिस्र के दरबार से टोलेमी (Ptolemy) की आज्ञा से भेजा गया था। डीमाकस और डायनीसियस द्वारा लिखित विवरण पूर्णतया नष्ट हो चुके हैं। उनकी पुस्तकों के बहुत कम उद्धरण हमारे हाथ लगे हैं, जिनका अपना महत्त्व बहुत ही कम है। पैट्रोक्लीज़ (Patrocles) ने, जो कि सैल्यूकस और एण्टियोकस प्रथम (Antiochos I) के अधीन कैस्पियन सागर तथा सिंधु नदी के बीच के प्रान्तों का गवर्नर था, भारत तथा अन्य देशों का विवरण दिया है। स्ट्रेबो ने उपर्युक्त लेखक के विवरण को सत्य माना है। पेरिप्लस आफ द एरिथ्रीयन सी (Periplus of the Erythraean Sea) के यूनानी लेखक ने 80 ई० के लगभग भारत के तटों की यात्रा की और उनके व्यापार तथा बन्दरगाहों का विवरण लिखा। इस पुस्तक से प्राचीन भारतवासियों के समुद्री अभियानों का ज्ञान प्राप्त होता है। ईसा पश्चात् दूसरी शताब्दी में टोलेमी ने भारतीय भूगोल पर एक पुस्तक लिखी। यद्यपि भारतीय भूगोल सम्बन्धी इसका ज्ञान त्रुटिरहित न था, तथापि हमें उसने बहुत-सी अमूल्य जानकारी प्रदान की है।
ईसा पश्चात् पहली शताब्दी में प्लाइनी (Pliny) ने भारत के जानवरों, पौधों और खनिज-पदार्थों के विषय में एक विवरण लिखा। यह बात ध्यान देने के योग्य है कि यूनानियों द्वारा दिए गए विवरणों को सावधानी से प्रयोग में लाना चाहिए। कारण यह है कि सम्भवतः उनके भारत सम्बन्धी ज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि रही हो। हो सकता है कि उन्होंने देश को पूर्ण रूप से देखने का कष्ट ही न किया हो और इस तरह महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने न आ पाए हों। उन्हें भारतीय भाषाएँ शायद नहीं आती थीं। अतः हो सकता है कि भाषाओं के ज्ञान के अभाव में वे भारत सम्बन्धी उपयुक्त ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ रहे हों। अतः इस बात की सम्भावना अधिक है कि उन्होंने सभी बातों को भारतीय दृष्टि से न देखकर यूनानी दृष्टि से देखा हो। इस प्रकार यह आशा की जा सकती है कि यूनानियों द्वारा दिए गए भारत सम्बन्धी विवरण सत्य के कम निकट रहे हों या फिर अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से उन्हें लिखा गया हो। डॉ० आर०सी० मजूमदार ने लिखा है : “इस सभी विचार-विमर्श का यह परिणाम है कि हमें अपने मस्तिष्क से इस विचार को निकाल देना चाहिए कि पौराणिक लेखकों के विवरण सत्य या प्रामाणिक माने जाने के योग्य हैं और प्रमाणित तथ्यों पर आधारित हैं। विशेषतः स्ट्रैबो (Strabo) के पूर्ववर्ती लेखक सामान्य रूप से समालोचक नहीं थे। अतः वे स्ट्रैबो और आर्यन की अपेक्षा कम विश्वसनीय हैं जिनके विचार अधिक परिपक्व थे और उनकी दृष्टि अधिक पैनी थी। उन्होंने मूर्खतापूर्ण विवरणों या अप्राकृतिक सिद्धान्तों की प्रामाणिकता को चुनौती दी जिनको पूर्ववर्ती लेखकों ने पूर्णतः सत्य माना था। हो सकता है कि उनमें से अधिकाँश ने जानबूझ कर झूठ
न बोला हो या तथ्यों को तोड़ा-मोड़ा न हो किन्तु भारतीय भाषा, रीति-रिवाज, भारतीय विज्ञापकों की गलत रिपोर्टों या भारतीय साहित्य की गल्पों या उपमाओं के अपूर्ण ज्ञान के कारण पथभ्रष्ट हो गए होंगे। उनके नैतिक चरित्र का निर्णय करते समय हम उन पर विचार कर सकते हैं किन्तु उनके वर्णन की विश्वसनीयता के बारे में हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आना चाहिए। जो किसी भी कारण से झूठी कहानियाँ लिखने का दोषी है और जो स्वाभाविक या सम्भावित घटनाओं में उचित भेद करने में असमर्थ सिद्ध हो चुका है, उन घटनाओं का विश्वसनीय लेखक नहीं माना जा सकता जो सम्भावनाओं की सीमा के परे न हों। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हमें उनके विवरणों को रद्द कर देना चाहिए। इसका यही तात्पर्य है कि जहाँ इनके विवरणों में एकरूपता है और विरोध नहीं है हम उन्हें अस्थायी रूप से सत्य मान सकते हैं। किन्तु हम उनको विशेष रूप से सत्य नहीं मान सकते। हम नये प्रामाणिक तथ्यों के प्रकाश में उन्हें रद्द करने को सदैव ही तैयार रहेंगे। किन्तु निर्णय देते समय हम प्राचीन विवरणों की सामान्य प्रकृति पर विचार करेंगे।”6 फ़ाह्यान (Fa-hien), ह्यून-त्सांग (Hieun Tsang) और ई-त्सिंग (I-tsing) जैसे चीनी यात्रियों से भी हमें मूल्यवान् जानकारी प्राप्त होती है। इन यात्रियों ने “अपने इष्ट देव के जीवन और परिश्रम के स्थानों की तीर्थ-यात्रा की” और अन्य जो भी दृश्य उन्होंने देखे उनका विवरण लिखा। ह्यून-त्साँग को ‘यात्रियों में राजकुमार’ कहा जाता है। उसने कई वर्ष भारत में निवास किया और नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। ह्यून-त्साँग को हर्षवर्धन ने संरक्षण प्रदान किया। उसके विवरण को भारत का ज्ञान-कोश माना जाता है। फ़ाह्यान से हमें चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्य के विषय में लाभदायक ज्ञान प्राप्त होता है। ई-त्सिग ने ईसा पश्चात् सातवीं शती में भारत-भ्रमण किया और भारतवासियों की सामाजिक एवं धार्मिक दशा का अत्यन्त लाभप्रद विवरण इतिहासकारों के लिए लिख दिया। चीनी ऐतिहासिक पुस्तकों में भी चीन की सीमाओं पर रहने वाली खानाबदोश जातियों की यात्राओं तथा प्रवास की पर्याप्त सूचना उपलब्ध होती है। इन्हीं जातियों में से कुछ ने कालान्तर में भारत पर आक्रमण किए। ऐसे तथा अन्य सामयिक घटनाओं के उल्लेखों से भारत के इतिहास की पृष्ठभूमि का निर्माण करने में पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। बौद्ध-धर्म विषयक कई मौलिक पुस्तकें भारत से चीन ले जाई गईं और वहाँ उनका चीनी-भाषा में अनुवाद किया गया। मूल पुस्तकें तो अब प्राप्त नहीं हैं किन्तु अनुवाद अब भी विद्यमान हैं और हमें अमूल्य सूचना देते हैं। तिब्बत के इतिहासकार तारानाथ ने अपनी पुस्तक बौद्ध-धर्म का इतिहास (History of Buddhism) में बौद्ध-धर्म सम्बन्धी पर्याप्त अमूल्य सामग्री का संग्रह किया है। ‘मणि, बका’ ‘बम’ नामक तिब्बतियों का पवित्र इतिहास तथा बू स्टोनस इतिहास के चोज़ बाईन तथा तीन जिल्दों में कानून का जन्म (Birth of Law) भी भारत के बारे में लाभदायक जानकारी देते हैं। अरबी आत्री, भूगोल-वेत्ता तथा इतिहासकार भी आठवीं सदी के बाद भारत की ओर आकर्षित हुए। प्रारम्भिक अरब लेखकों ने भारत के इतिहास के बारे में लिखने के स्थान पर यहाँ के निवासियों और देश के बारे में अधिक लिखा है। प्रमुख अरब पुस्तकों में किताब अल फहरिस्त (जीवन-चरित्रों का संग्रह), किताब फोतूह, अल बेला डोरी की अल बोल्दां, मोज़म उल बोल्दा, याकूत की देशों का कोष और अल काजविन की अतर अल बिलाद तथा देशों के स्मारक भवन (monuments) प्रसिद्ध हैं। अल्बरूनी ने महमूद गज़नवी के समय में भारत-यात्रा की और “तहक़ीक़-ए-हिन्द” (Tehqiq-i-Hind) नामक अपनी उल्लेखनीय पुस्तक हमें भेंट की। इस पुस्तक का अंग्रेजी और हिन्दी में अनुवाद किया जा चुका है और इससे भारत के सम्बन्ध में बहुत-सी लाभदायक सामग्री मिलती है। अल्बरूनी ने स्वयं संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और इस प्रकार उसने संस्कृत स्रोतों का भी अध्ययन किया। उसकी पुस्तक बहुत बड़ी है और उसमें कई विषयों पर विस्तृत विवरण दिया गया है। किन्तु उसकी पुस्तक उसके अध्ययन पर आधारित थी, उसकी देखी हुई वस्तुओं पर नहीं। उसमें उसके व्यक्तिगत ज्ञान का आभास नहीं मिलता क्योंकि वह संस्कृत पुस्तकों पर आधारित थी। उसने अपने समय के भारतीयों की अवस्था का बहुत कम उल्लेख किया है।
(4) जाति सम्बन्धी किंवदन्तियाँ (Tribal Legends)
प्राचीन भारत के सम्बन्ध में कुछ जानकारी जातीय किंवदन्तियों से भी उपलब्ध हो सकती है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से उसका मूल्यांकन करते समय यह जान लेना उचित है कि वे एकरूपी हैं या बहुरूपी, उनकी प्रथम रचना के पश्चात् जोड़े गए प्रक्षेपों का कुछ आभास मिलता है या नहीं। वे जाति द्वारा सामान्यः स्वीकार की जाती हैं या नहीं। यह भी आवश्यक है कि उनकी सूचना देनेवालों की योग्यता की जाँच की जाए ताकि यह ज्ञात हो सके कि अपने स्रोतों की भाषा समझने की वे कितनी क्षमता रखते थे। स्वयं अपनी
ओर से अनुमान लगाने की प्रवृत्ति को समाप्त करना होगा और उनकी आवृत्ति को पूर्णतः पक्षपातहीन होकर छायाचित्र की भाँति ग्रहण करना होगा। यदि किसी जाति की किंवदन्तियाँ इन सब कसौटियों पर पूरी उतरें, तो निस्सन्देह वे अमूल्य हैं, यदि नहीं तो उनका मूल्य बहुत कम या समाप्त हो जाता है। कर्कखण्ड (छोटा नागपुर) के इतिहास के पुनर्निर्माण में जातीय किंवदन्तियों की अपार महत्ता है। यद्यपि उन जातीय किंवदन्तियों पर कोई विशेष साहित्य उपलब्ध नहीं है।
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