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Case Law : parigonda honagonda paatil prativaadee–apeelaarthee banaam kaalagonda shidhagonda paatil tatha any vaadeegan-uttaraartheegan परिगोण्डा होनगोण्डा पाटिल प्रतिवादी–अपीलार्थी बनाम कालगोण्डा शिधगोण्डा पाटिल तथा अन्य वादीगण-उत्तरार्थीगण

 

Case Law : परिगोण्डा होनगोण्डा पाटिल  प्रतिवादी–अपीलार्थी  बनाम  कालगोण्डा शिधगोण्डा पाटिल तथा अन्य  वादीगण-उत्तरार्थीगण

Parigonda Hongonda Patil defendant-appellant versus Kalgonda Shidhgonda Patil and other plaintiffs-respondents.


Case Law : Parigonda Hongonda Patil defendant-appellant versus Kalgonda Shidhgonda Patil and other plaintiffs-respondents.



[LEADING CASES]
प्रमुख वाद


परिगोण्डा होनगोण्डा पाटिल
प्रतिवादी–अपीलार्थी


बनाम


कालगोण्डा शिधगोण्डा पाटिल तथा अन्य
वादीगण-उत्तरार्थीगण

सन्दर्भ (Reference) - A.I.R. 1957, S.C. 363.

विषय (Subject)—यह मामला व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 17, जो वाद-

पत्र में संशोधन के सम्बन्ध में, पर आधारित है।

वाद के तथ्य (Facts of the Case) :

1. मूल वादी ने 1942 ई. में प्रतिवादी नं. 3 के विरुद्ध मकान पर कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद प्रस्तुत किया तथा 28 मार्च, 1944 उच्चतम न्यायालय द्वारा भी कर दी गई।डिक्री भी प्राप्त कर ली। इस डिक्री की पुष्टि

2. मूल वादी ने उक्त डिक्री के निष्पादन के लिए प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया। उसका प्रतिवादी नं. 1 (अपीलार्थी) ने विरोध किया। इस विरोध की शिकायत मूल वादी ने व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 21, नियम 97 के अन्तर्गत प्रार्थना-पत्र द्वारा की, किन्तु वह प्रार्थना-पत्र निरस्त हो गया।

3. उत्तरार्थी नं. 1 व 2 मूल वादी के उत्तराधिकारी थे तथा उत्तरार्थी नं. 3 वाद-पत्र में प्रतिवादी नं. 2 था और उत्तरार्थी प्रतिवादी नं. 1 था। विचारण न्यायालय (Trial Court)—तब मूल वादी ने व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 21, नियम 103 के अन्तर्गत वाद प्रस्तुत किया और प्रार्थना की कि वादी को प्रतिवादी नं. 1 से विवादित सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकारी घोषित किया जाए।

प्रतिवादी नं. 1 ने वादी का प्रतिवाद प्रस्तुत किया। वाद में वाद-बिन्दु बनाया गया कि “क्या

प्रतिवादी नं. 1 के विरुद्ध यह वाद चलने योग्य नहीं है ?" 

जब वाद की सुनवाई आरम्भ हुई तब मूल वादी ने वाद-पत्र में संशोधन हेतु माँग की, तब

प्रतिवादी नं. 1 ने इस प्रार्थना-पत्र का भी प्रतिरोध किया।

विचारण न्यायालय (सिविल जज) ने यह वाद इस आधार पर निरस्त कर दिया कि वाद-पत्र

में प्रतिवादी नं. 1 के विरुद्ध कोई वाद-कारण प्रस्तुत नहीं किया गया है।

उच्च न्यायालय (High Court)-विचारण न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध वादी ने बम्बई

उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत की। उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली तथा वाद-पत्र में

संशोधन का प्रार्थना-पत्र भी कुछ हर्जा लगाकर स्वीकार कर लिया।

उच्चतम न्यायालय (Supreme Court)–तब प्रतिवादी नं. 1 (अपीलार्थी) ने, विशेष

अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील प्रस्तुत की।


अपीलार्थी की ओर से दो तर्क प्रस्तुत किये गए-

1. यह कि संशोधन प्रार्थना-पत्र समय अवधि के पश्चात् प्रस्तुत किया गया है, तथा

2. यह कि इस प्रकार की वाद-पत्र की त्रुटि संशोधन द्वारा सही नहीं की जा सकती है।

अपीलार्थी का कथन था कि व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 26, नियम 103 के अन्तर्गत वाद प्रस्तुत करने की अवधि आदेश 21, नियम 97 के अन्तर्गत पारित आदेश के दिनांक से 1 वर्ष होती है।

यह आदेश इस मामले में 12 अप्रैल, 1947 को पारित किया गया था और वाद 12 मार्च, 1948 को प्रस्तुत किया गया था, किन्तु संशोधन प्रार्थना-पत्र 20 नवम्बर, 1948 को प्रस्तुत किया गया था।

विद्वान न्यायाधीशों द्वारा विचार व्यक्त किया गया कि जो संशोधन प्रार्थना-पत्र निम्नलिखित दो

शर्तों को पूरा करते हुए प्रस्तुत किया गया हो उसे स्वीकार किया जाना चाहिए-

(अ) वह दूसरे पक्ष के लिए अन्यायकारी न हो; और

(ब) वह पक्षकारों के मध्य विवाद के वास्तविक प्रश्नों के निर्णय के प्रयोजन हेतु आवश्यक

हो ।

उनका कहना था कि इस मामले में प्रस्तावित संशोधन कोई नया मामला प्रस्तुत नहीं करता है।

निर्णय (Judgement)—उपरोक्त तर्कों के आधार पर अपील व्यय सहित अस्वीकार की गई।

अपील अस्वीकार की गई।

प्रतिपादित विधि के सिद्धान्त (Principles of Law Laid Down) :

1. संशोधन के प्रार्थना-पत्र को स्वीकार करने के लिए निम्नलिखित दो शर्तों का होना आवश्यक है-

(क) वह दूसरे पक्ष के लिए अन्यायकारी न हों; और

(ख) वह पक्षकारों के बीच के विवाद के वास्तविक प्रश्नों के निर्णय के प्रयोजन के लिए आवश्यक हो ।

2. निम्नलिखित परिस्थितियों में संशोधन प्रार्थना-पत्र निरस्त किया जा सकता है--

-

(अ) यदि संशोधन प्रार्थना-पत्र द्वारा नया मामला प्रस्तुत किया गया हो; या

(ब) यदि विरोधी पक्ष को प्रतिकर न दिलाया जा सकता हो ।



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