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pallavan kya hai mahtva prakar पल्लवन की प्रक्रिया को समझाते हुए, पल्लवन का हिंदी भाषा में महत्व बताइए।


 

प्रश्न; पल्लवन किसे कहते हैं? पल्लवन को परिभाषित कीजिए। 

अथवा", पल्लवन की प्रक्रिया को समझाते हुए, पल्लवन का हिंदी भाषा में महत्व बताइए। 

अथवा", पल्लवन से आप क्या समझते हैं? 

अथवा", पल्लवन के प्रकार लिखिए। 


pallavan kya hai mahtva prakar
pallavan kya hai mahtva prakar : Uniexpro.in 




उत्तर--

पल्लवन का अर्थ (pallavan kise kahate hain)

पल्लवन प्रक्रिया संक्षेपण प्रक्रिया के ठीक विपरीत है। संक्षेपण में मूलपाठ का सार प्रस्तुत किया जाता है, जबकि पल्लवन में मूल कथन को विस्तृत करते हुए प्रस्तुत किया जाता है। पल्लवन का सीधा तथा स्पष्ट अर्थ है विस्तार करना अथवा बढ़ाना। हिंदी भाषा में पल्लवन संक्षेपण का विपरीतार्थक हैं। पल्लवन किसी भावपूर्ण वाक्य, कथन, वाक्यांश, लोकोक्ति अथवा पद्यात्मक सुक्ति को समझाकर लिखने की एक कला है। यह विचारों का एक ऐसा क्रमबद्ध पुनप्रस्तुतिकरण हैं, जिसमें उदाहरण के सहारे बात को स्पष्ट करना होता हैं। 

पल्लवन हेतु दिये गये भाव, विचार अथवा सुक्ति के अर्थ तथा भाव को विस्तार करते हुए एक निबंध लिखा जा सकता है पर यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि पल्लवन निबंध नहीं है। निबंध लेखन में पर्याप्त स्वतंत्रता रहती हैं, जबकि पल्लवन लेखन को बँधे-बंधाये तथा एक छोटे दायरे में ही रहना पड़ता हैं। इसे विषय से इधर-उधर होने की छूट नहीं मिलती है। वैसे पल्लवन में मूल भाव या विचार की व्याख्या होती है, पर यह ध्यान रहे कि पल्लवन व्याख्या नहीं है। व्याख्या में प्रसंग, निर्देश, उदाहरण एवं टीका-टिप्पणी या आलोचना-समालोचना करने की स्वतंत्रता होती हैं। पल्लवन मुख्यतः एक संक्षिप्त रचना हैं जो प्रायः एक ही अनुच्छेद में लिखी होती हैं।

पल्लवन की परिभाषा (pallavan ki paribhasha)

एस. टी. इमाम के अनुसार," Amplification is an act of expansion or a enlargement of thought, process by manner of representation. It is a diffcesive discussion. It is dilating upon all the particulars of a subjaect by way of illustration and various ex- Camples and process." अर्थात् विस्तारीकरण विचारों के विस्तारण अथवा अभिव्यक्ति की प्रक्रिया है। यह विचारों का विस्तारण है। यह दृष्टान्तों, विभिन्न उद्धरणों और प्रमाणों से संबंधित सभी विवरणों को पल्लवित करता है।

बेकन के विचार के शब्दों में," विस्तारण किसी एक विचार को एक अनुच्छेद में विस्तृत करना है। उसका उद्देश्य नियंत्रित होता है तथा इसमें मूल विचार को विकृत करने तथा अवांछनीय सामग्री देने का निषेध होता है।

डॉ. मुशीराम शर्मा कहते हैं कि," वस्तुतः किसी सूत्रबद्ध अथवा संगुफित विचार या भाव के  संविकासन को विस्तारण कहते हैं। 

डॉ. चन्द्रपाल के अनुसार," विस्तारण भाषा अभिव्यक्ति की प्रविधि है, जिसमें मूल कथन अथवा सूक्ति का व्याख्यापरक अर्थ समभावी रचनाओं और उदाहरणों से व्यक्त किया जाता है। विस्तारण में सामान्यतः विषय शीर्षक अथवा लघु-अनुच्छेद व्याख्यात्मक ढंग से विस्तारपूर्वक लिखने की अपेक्षा होती है।

पल्लवन की प्रक्रिया/पल्लवन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें 

पल्लवन करते समय निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-- 

1. सर्वप्रथम मूलपाठ को पढ़कर उसके मूलभाव को हृदयगंम करना चाहिए। इसके साथ ही पूरे पाठ का समग्रभाव से सुपरिचित हो जाना चाहिए।

2. अवतरण आए विशेष शब्दों, सूक्तियों आदि को ध्यान से पढ़कर उसका स्पष्ट भाव समझ लेना चाहिए।

3. पल्लवन में केन्द्रीय भाव की मूल तथा गौण दिशाओं पर विचार करने के पश्चात् उनमें से उपयोगी अंश अपनाया जा सकता है।

4. मूलभाव को स्पष्ट करने के लिए समतुल्य उदाहरणों का उपयोग किया जा सकता है। इससे भावात्मक स्थिति पर्याप्त स्पष्ट हो जाती है।

5. मूलभाव को केन्द्र में रखते हुए अनुच्छेद के विभिन्न भावों को पूर्वक्रमानुसार रखना ही उपयोगी होता है।

6. पल्लवन में ध्यान रखना चाहिए कि अनावश्यक उदाहरण या अनावश्यक चर्चा से विस्तार नहीं होना चाहिए।

7. पल्लवन में व्याख्यात्मक रूप अपनाकर भाव या भाषा सौन्दर्य की चर्चा नहीं होनी चाहिए।

8. किसी उक्ति या कथन को असहमत होने पर भी उस पक्ष की चर्चा करनी होगी, किन्तु उसका खण्डन नहीं करना चाहिए।

9. पल्लवन की भाषा सरल, सहज तथा बोधगम्य होनी चाहिए। अनावश्यक चमत्कारिक या अलंकारिक भाषा के प्रयोग से बचना चाहिए।

10. पल्लवन में अन्य पुरुष का उपयोग होना चाहिए।

11. पल्लवन में अति विस्तार से भी बचना चाहिए।

हिंदी-भाषा में पल्लवन का महत्व (pallavan ka mahatva)

हिन्दी भाषा में 'पल्लवन' को विचार-शक्ति सुविकसित करने का सशक्त माध्यम माना गया हैं। 'पल्लवन' शब्द 'पल्लव' शब्द से बना है। 'पल्लव' शब्द का अर्थ हैं- वृक्षों के नये पत्ते, जो किसलय (कोपल) अवस्था को पूर्ण कर युवावस्था की विशेषताओं से समन्वित होते हैं। 

आशय यह है कि जिस तरह किसलय की पूर्णता पल्लव-रूप में निहित होती है, उसी तरह कोई भी सुक्ति, विचार या मूल-भाव विविध उदाहरणों, दृष्टान्तों, अन्य सह-भावों तथा विचारों से पुष्ट होता हुआ पल्लवित होता है, तो इस भाषायी क्रिया को 'पल्लवन' कहा जाता हैं। 

'पल्लवन' के अभ्यास से विद्यार्थियों की विचार-शक्ति विकसित होती है, विचारों में परिष्कार तथा परिमार्जन आता है। उनकी कल्पना-शक्ति में विकास होता है एवं जीवन के विविध क्षेत्रों जैसे- सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक, साहित्यिक तथा व्यावहारिक (दैनिक जीवन) आदि क्षेत्रों से संबंधित अनुभवों को समझने-समझाने की क्षमता का विकास होता है तथा तत्संबंधी ज्ञान में अभिवृद्धि होती है। इससे लेखन-कौशल तथा भावाभिव्यक्ति के कौशल का विकास होता है। इस तरह पल्लवन से विद्यार्थी में वैचारिक प्रतिभा एवं व्यावहारिक भाषायी कौशलों एवं दक्षताओं का विकास होता है। अतः पल्लवन को विचार-शक्ति को सुविकसित करने का माध्यम मानना उचित ही हैं। इस दृष्टि से हिन्दी-भाषा के सीखने के क्षेसत्र में पल्लवन का विशिष्ट महत्त्व हैं।

पल्लवन के प्रकार (pallavan ke prakar)

पल्लवन कई तरह के कथ्यों का किया जाता है जैसे-- कभी किसी एक शब्द का पल्लवन कराया जाता है, कभी दो या दो से अधिक शब्दों वाले किसी भाव या विचार का पल्लवन कराया जाता है, कभी किसी वाक्य का पल्लवन कराया जाता है, कभी किसी लोकोक्ति या मुहावरे को पल्लवन के लिए दिया जाता है, कभी किसी वार्ता या कथा की रूपरेखाओं का पल्लवन कराया जाता है और कभी कथा या वार्ता के किसी शीर्षक को पल्लवन के लिए दिया जाता है। इन सबकों छः भागों में विभाजित कर सकते है और यह पल्लवन के छः प्रकार कहे जा सकते हैं, जो निम्नानुसार हैं-- 

1. एक शब्द का पल्लवन 

पंचायत, प्रतिभा, वसंत, सहकारिता, मितव्ययिता, पुस्तकालय, सूर्यग्रहण आदि। 

2. दो या दो से अधिक शब्दों का पल्लवन 

राजकीय प्रयोजन, परीक्षा का माध्यम, वैधानिक व्यवस्था, राष्ट्रहित की सिद्धि, मानसिक संकीर्णता, कुसंगति का प्रभाव, प्रात:काल का दृश्य आदि। 

3. एक वाक्य का पल्लवन

बैर क्रोध का आचार या मुरब्बा हैं, श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति हैं, अहिंसा ही परम धर्म है, मित्रता की कसौटी विपत्ति हैं, सत्य जीवन का धर्म हैं, परिश्रम सफलता की कुंजी हैं आदि। 

4. किसी मुहावरे या लोकोक्ति का पल्लवन 

समरथ को नहिं दोष गुसाई, अधभर गगरी छलकत जाए, होनहार विरवान के होत चीकने पात, सर्व दिन होत न एक समान, थोथा चना बाजे घना, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, आप काज महाकाज, परहित सरिस धर्म नहिं भाई, तिल की ओट पहाड़, सावन सूखे न भादों हरे, गड़े मुर्दे उखाड़ना, ईट से ईट बजा देना, मन के हारे हार मन के जीते जीत आदि। 

5. किसी कथा वार्ता की रूप रेखाओं का पल्लवन 

इसके अंतर्गत किसी कथा या वार्ता का कुछ अंश बीच में से छोड़ कर दे दिया जाता है। एक तरह से रिक्त स्थान की पूर्ति जैसा ही यह पल्लवन होता हैं, जैसे किसी हाथी का नित्य तालाब की ओर जाना........मार्ग में दर्जी की दुकान पड़ना.......हाथी का दर्जी की दुकान की ओर सूँड करना.........दर्जी का हाथी की सूँड में सुई चुभोना, हाथी का दर्जी की दुकान में कीचड़ फेंकना। 

6. किसी कथा या वार्ता के शीर्षक का पल्लवन 

खरगोश और कछुआ, लोमड़ी और सारस, बंदर और मगरमच्छ, सावित्री और सत्यवान, तुलसी और सालिग्राम, रूक्मिणी-हरण, पन्नाधाय का त्याग आदि।


पल्लवन के उदाहरण इस प्रकार हैं--

1. ईर्ष्या 

जैसे दूसरे के दुःख को देख दुःख होता है वैसे ही दूसरे से सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दुःख होता हैं, जिसे 'ईर्ष्या' कहते हैं। ईर्ष्या की उत्पत्ति कई भावों के संयोग से होती है, इससे इसका प्रादुर्भाव बच्चों में कुछ देर में देखा जाता है और पशुओं में तो शायद होता भी न हो। ईर्ष्या एक संकर भाव है, जिसकी सम्प्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराशय के योग से होती है। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं तब कभी-कभार ऐसा देखा जाता है कि एक उस खिलौने को लेकर फोड़ देता है, जिससे वह किसी के काम में नहीं आता। इससे अनुमान हो सकता है कि उस लड़के के मन में यही रहता है कि चाहे वह खिलौना मुझे मिले या न मिले, लेकिन किसी ओर के काम नही आना चाहिए अर्थात् उनकी स्थिति मुझसे अच्छी न रहे। ईर्ष्या पहले-पहल इसी रूप में व्यक्य होती हैं।

2. आत्म दृष्टि विश्वबंधुत्व की आधारशिला है

आचार्य शंकर के अनुसार इस लोक में तीन प्रकार की दृष्टियां होती है देह दृष्टि देव दृष्टि एवं आत्म दृष्टि। संसार के 'मनुष्य पारस्परिक देह संबंध को महत्त्व देकर, पिता-पुत्र, माता-पिता, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, भाई-बहन, एवं शत्रु की स्थिति स्वीकार कर लेते हैं एवं सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, इनसे ऊपर वे लोग है, जो किसी पूज्य के प्रति श्रद्धालु होकर आराध्य और आराधक भाव से देवत्व की स्थिति स्वीकार कर लेते हैं तथा  'मात देवो भव, पितृ देवो भव, गुरुर्देवो भव' में ही पुण्य की इतिश्री समझ लेते हैं। इन दोनों के ऊपर के धरातल के लोग आध्यात्मिक होते हैं उनकी दृष्टि में देह एवं दैहिक संबंध नश्वर है, देव एवं देवत्व कर्माधीन होने के कारण क्षणिक हैं, केवल आत्मा ही शाश्वत, अनन्त एवं अभेद्य है। इस आध्यात्मिक धरातल पर 'मैं' 'तुम' और 'वह' की सत्ताविलीन हो जाती है, क्योंकि ये शब्द उसी आत्मा के विभिन्न सर्वनाम हैं। ऐसी बोधात्मक स्थिति में आध्यात्मिक मनुष्य संपूर्ण विश्व को एक परिवार मान लेता है एवं निःस्वार्थ भाव से विश्व बंधुत्व का प्रचार-प्रसार करता है। इस आत्मा दृष्टि से गोरे और काले, अमीर और गरीब, हिन्दु और मुसलमान का भेद नहीं होता। 'बसुधैव कुटुम्बकम्' के मानने वाले लोग इसी आत्म दृष्टि से अनुप्राणित होते हैं।

3. बैर क्रोध का आचार या मुरब्बा हैं 

जिससे हमें दुःख पहुँचा है उस पर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध यदि हमारे ह्रदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह बैर कहलाता हैं। इसके स्थायी रूप में टिक जाने के कारण क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है पर लक्ष्य को पीड़ित करने की प्रेरणा बराबर बहुत काल तक हुआ करती है। क्रोध अपना बचाव करते हुए शत्रु को पीड़ित करने की युक्ति आदि सोचने का समय प्रायः नहीं देता, पर बैर उसके लिए बहुत समय देता है। सच पूछिए तो क्रोध और बैर का भेद केवल कालकृत है दुःख पहुँचने के साथ ही दुःखदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा करने वाला मनोविकार क्रोध और कुछ साल बीत जाने पर प्रेरणा करने वाला भाव बैर हैं। जैसे यदि किसी ने आपको गाली दी और उसी समय आपने उसे मारा तो आपने क्रोध किया। मान लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद आपको कहीं मिला अब आपने उससे बिना फिर सुने, मिलते से ही उसे मार दिया तो यह आपका बैर निकालना हुआ। इसी कारण बैर को क्रोध का अचार अथवा मुरब्बा कहा जाता हैं।

4. लालच बड़ी बुरी बला हैं 

लालच एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अपना विवेक और बुद्धि दोनों खो देता है। यह बात एक बाल कहानी से सिद्ध होती हैं जिसमें एक मनुष्य के पास एक मुर्गी थी। जो रोज एक सोने का अंडा देती थी। ऐसे सोने के अंडे को पाकर वह आदमी बड़ा खुश रहता था, परन्तु वह काफी लालची था। वह मन-ही-मन सोचा करता था कि मुझे सिर्फ रोज एक ही सोने का अंडा मिलता हैं। मुझे सारे सोने के अंडे एक साथ ही क्यों नहीं मिल जाते। इसी कारण उसने सोचा क्यों ना मुर्गी के पेट से एक साथ सभी अंडे निकाल लिये जाए इसलिए उसने मुर्गी को मार डाला। वह मुर्गी भी अन्य मुर्गियों की ही तरह थी उसके पेट के अंदर सोने के अंडे भरे नहीं थे। मुर्गी के मरने के बाद उसको सोने का एक भी अंडा नही मिला। इस प्रकार सोने का अंडा और मुर्गी दोनों उसके हाथ से चली गई। 

इस प्रकार अपने लालच के चलते उस व्यक्ति की सामान्य बुद्धि भी समाप्त हो गई वह लालच के चलते इतना भी नही सोच सका कि मुर्गी के पेट में बहुत से अंडे एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए कहा जाता हैं कि लालच बड़ी बुरी बला हैं।

5. लघुता से प्रभुता मिले प्रभुता से प्रभु दूर

विनम्रता मनुष्य की सफलता का विशेष आधार है। विनम्र व्यक्ति गुणों का ग्राहक बनकर धीरे-धीरे शिक्षित और गुणी बन जाता है। विनम्रता में पल्लवित होने वाली श्रद्धा भावना उसे श्रेष्ठ व्यक्तियों का सानिध्य प्रदान करती है सज्जनों की संगति से उसे प्रभुता मिल जाती है, क्योंकि कहा भी गया है, "जैसी संगति बैठिए तैसे ही गुण होत।"

संसार गुणों और विशेषताओं से भरा हुआ है। आवश्यकता है उसको अपनाने के लिए सुपात्र बनने की यदि हम किसी के उठे हुए हाथ के नीचे अपना हाथ रखकर कुछ पाना चाहेंगे, तो अवश्य मिलेगा, किन्तु यदि उस हाथ से ऊपर रखकर उसमें से पाने की आशा रखेंगे, तो असफल ही होंगे। इसी प्रकार यदि मनुष्य में अहं का भाव भर जाएगा, तो न विनम्रता होगी, न गुण-गाध्यता आएगी और न ही भक्ति का आदर्श भाव विकसित हो सकेगा। इस प्रकार विनम्रता ही मनुष्य को गुणसम्पन्न कर ईश्वर-प्रदान कराती है।

6. आत्मविश्वास सफलता का पहला रहकर हैं 

आत्मविश्वास का अर्थ स्वयं के भीतर विश्वास होने से है। जीवन में किसी भी कठिन परिस्थिति आने पर भी अगर उसका शांत और समझदारी से सामना किया जाए तो उस स्थिति में व्यक्ति का आत्मविश्वास झलकता है। किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए आत्मविश्वास का होना बेहद जरूरी है क्योंकि एक आत्मविश्वासी व्यक्ति ही जीवन की सफलताओं को हासिल कर सकता है।

आत्मविश्वास से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है तथा समाज में उसकी ओर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। एक स्वस्थ और अनुशासित व्यक्ति में आत्मविश्वास भरपूर मात्रा में होता है क्योंकि एक स्वस्थ मस्तिष्क ही हर कार्य को पूरा करने के लिए अलग रणनीतियां अपनाता है और उस कार्य में दक्ष भी हो जाता है जिससे लोगों का उस व्यक्ति की ओर आकर्षण बढ़ता है। 

आत्मविश्वासी व्यक्ति ही आगे कदम बढ़ाता है तथा अपने लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ बनता हैं।  इस तरह आत्मविश्वास सफलता का पहला रहस्य हैं। 

अपने आत्मविश्वास से एक अकेला शख्स पहाड़ भी तोड़ सकता हैं, इसका उदाहरण दशरथ मांझी हैं। साल 1960 से 1982 के बीच दिन-रात दशरथ मांझी के दिलो-दिमाग में एक ही चीज़ ने कब्ज़ा कर रखा था, पहाड़ से अपनी पत्नी की मौत का बदला लेना और 22 साल जारी रहे आत्मविश्वास और जुनून ने अपना नतीजा दिखाया और पहाड़ ने मांझी से हार मानकर 360 फुट लंबा, 25 फुट गहरा और 30 फुट चौड़ा रास्ता दे दिया।

7. नर-नारी एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं 

जीवन-रूपी गाड़ी के नर-नारी दो पहिए है। जिस प्रकार से गाड़ी का एक पहिए पर चलना संभव नहीं है, उसी प्रकार जीवन-रूपी गाड़ी भी नर या नारी किसी एक के अभाव में नहीं चल सकती हैं।  सृजन, सृष्टि, विकास सभी में नर-नारी की समान रूप से भागीदारी व महत्ता हैं। जीवन की गाड़ी के संचालन के लिए दोनों में परस्पर सहयोग एवं सामन्जस्य नितान्त आवश्यक हैं।

8. परिश्रम सफलता की कुंजी है

मनुष्य को जीवन का वास्तविक आनन्द अपने श्रम से प्राप्त होता है जो सुबह से शाम तक अपना खून-पसीना एक करते हुए कर्मक्षेत्र में लगा रहता है, चिंता उससे दूर-दूर बहुत दूर भाग जाती है। ऐसे व्यक्ति के मन में व्यर्थ की बातों को सोचने का अवसर ही नहीं मिलता है। परिश्रमी व्यक्ति के लिए कोई भी लक्ष्य दूर नहीं, कोई भी रास्ता दुर्गम नहीं वह संघर्ष में मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ता रहता है। उसे अपने चिंतन और शक्ति पर पूरा विश्वास होता है। वह किसी के सहारे नहीं रहता। वह आत्मबल पर विश्वास और आत्म-सम्मान का अभिलाषी होता है। वह जानता है कि उसके पास दो हाथ हैं और वह इन्हीं हाथों के बल पर सफलता का वरण करता है। वह अपनी भाग्य का स्वयं निर्माता है। उसमें कठिनता को सरलता में बदलने की अपूर्व शक्ति होती है। परिश्रमी व्यक्ति को अपूर्व आनन्द की अनुभूति और जीवन में सतत सफलता मिलती है।

9. किसान देश की रीढ़ हैं 

भारत कृषि प्रधान देश हैं। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड है। जहां एक ओर यह प्रमुख रोजगार प्रदाता क्षेत्र है। वहीं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। देश की लगभग 58 प्रतिशत जनसंख्या अपनी आजीविका हेतु कृषि पर ही निर्भर है। कृषि की सकल घरेलू उत्पादन में भागीदारी लगभग 22 प्रतिशत है।

10. साहित्य समाज का दर्पण हैं 

उक्त कथन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्य की महत्ता से उद्धृत किया गया है। जिसका आशय है कि साहित्य अपने समाज की सही वस्तुस्थिति का चित्रण करता है। समाज कैसा है, उसकी सोच, आचार-विचार, रहन-सहन, उन्नति तथा अवनति सभी साहित्य में देखी जा सकती है। किसी भी समय के साहित्य को देखिए उस समय के समाज की वास्तविक स्थिति का पता सहज में चल जायेगा। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया हैं। साहित्य समाज को उसी तरह प्रभावित करता है जिस तरह समाज साहित्य को।

11. सवै दिन होत न एक समान 

प्रकृति परिवर्तनशील है। जीवन और जगत् की गति हमेशा एक जैसी नहीं रहती। प्रातःकाल का सूर्य संध्याकाल में निस्तेज हो जाता हैं। जो आज समस्त व्यंजनों का भोग करता पाया जाता है, वह कल भूख से बिलखता फिरता है। दाने-दाने को तरसता हुआ व्यक्ति धनसंपदा के असीम समुद्र में तैरते हुये मिलता है। राजा रंक और रंक राजा बन जाते है। आनन्द से फूला न समाने वाला अगले पल विपत्तियों से घिरा हुआ आँसू बहाता नजर आता हैं। उन्नति के शिखर पर आसीन व्यक्ति दूसरे ही क्षण अवनति के गर्त में जा गिरता हैं। 'सबै दिन होत न एक समान' का सत्य हमें भगवद्गीता के 'स्थितप्रज्ञ' बनने का उपदेश देता हैं, जिसका आशय यह है कि हम सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय में समभाव से रहें क्योंकि हम नश्वर देहधारी नहीं, आत्मा हैं, जिसका सम्बन्ध प्रकृति के विरोधों से नहीं हैं वरन् जो अखण्ड आनन्द का स्वरूप है, जिसकी प्रकृति केवल शान्त हैं, उससे हैं। इसी कारण किसी की गति एक-सी नहीं रहती। समय एक-सा नहीं रहता।



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